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ग़ज़ल
लाल डोरे तिरी आँखों में जो देखे तो खुला
मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ हैं पैमाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
नज़्म
पत्थर
जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हों डोरे
क्या तुझे रूह के पत्थर की ज़रूरत होगी
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
जुगनू
फ़ज़ा-ए-शाम में डोरे से पड़ते जाते हैं
जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
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