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ग़ज़ल
इक ज़रा सी गंध क्या पाई कि मंडराने लगीं
कुछ तमन्नाएँ हैं मुर्दा-ख़ोर चीलों की तरह
रहमान मुसव्विर
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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
वो हँसती हो तो शायद तुम न रह पाते हो हालों में
गढ़ा नन्हा सा पड़ जाता हो शायद उस के गालों में
जौन एलिया
नज़्म
मुहासरा
मिरे ग़नीम ने मुझ को पयाम भेजा है
कि हल्क़ा-ज़न हैं मिरे गिर्द लश्करी उस के
अहमद फ़राज़
नज़्म
तराना-ए-हिन्दी
ऐ आब-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझ को
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो सुब्ह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा