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ग़ज़ल
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हो जो मिन्नत से तो क्या वो शब नशीनी बाग़ की
काट अपनी रात को ख़ार-ओ-ख़स-ए-गुलख़न जला
मीर तक़ी मीर
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नज़्म
हुस्न और मज़दूरी
सर-ज़मीन-ए-रंग-ओ-बू पर अक्स-ए-गुलख़न ता-कुजा?
पाक सीता के लिए ज़िंदान-ए-रावण ता-कुजा?
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
जुनूँ में जा-ब-जा हम जो लहू रोते हैं सहरा में
गुलों के शौक़ में वीराने को गुलशन बनाते हैं
आग़ा हज्जू शरफ़
कुल्लियात
हो जो मिन्नत से तो क्या वो शब नशीनी बाग़ की
काट अपनी रात को ख़ार-ओ-ख़स-ए-गुलख़न जला
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
बरसों ख़स-ओ-ख़ाशाक पे सोए मुद्दत गुलख़न-ताबी की
बख़्त न जागे जो उस से हों एक भी शब हम-बिस्तर हम
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
ख़िर्मन-ए-गुल से लगें हैं दूर से कूड़ों के ढेर
लोहू रोने से हमारे रंग इक गुलख़न पे है