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ग़ज़ल
ख़ुश्क लबों पर प्यास सजाए बहर-ए-आशाम नहीं हैं हम
हम जैसों को तिश्ना-लबी में एक ही दरिया काफ़ी है
असलम अंसारी
ग़ज़ल
क्यूँ भला इबलीस को इल्ज़ाम देते हो फ़क़त
तुम को ख़ैर-ओ-शर का भी इल्हाम होना चाहिए
हुमैरा गुल तिश्ना
नज़्म
नक़्क़ाद
ज़ुल्मत-ए-इबहाम में परछाईं तफ़सीलात की
पेच ओ ख़म खाते बगूले में चमक ज़र्रात की
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
मोहब्बत इर्तिबात-ए-क़ल्ब से मशरूत होती है
यक़ीन-ओ-रब्त के इबहाम हो जाने से डरता हूँ