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नज़्म
किराए का मकान
हैं बाम-ओ-दर पे ये ग़ारत-गर-ए-होश
बहार-ए-बिस्तर-ओ-नौ-रोज़-ए-आग़ोश
क़ाज़ी गुलाम मोहम्मद
नज़्म
साल-ए-नौ
मुबारक हो तुझे नौ-रोज़ का ये दिन सहर जिस की
गले मिलने को तुझ से खोल कर आग़ोश आई है
बर्क़ देहलवी
ग़ज़ल
शाद लखनवी
शेर
ये अजीब माजरा है कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे है वही ले सवाब उल्टा
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
रहे नौ-रोज़ इशरत-आफ़रीं जोश-ए-बहार-अफ़्ज़ा
गुल-अफ़शाँ है करम तेरा चमन में दहर के हर जा
मह लक़ा चंदा
शेर
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे और वही ले सवाब उल्टा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सुब्ह-ए-रोज़-ए-आदम-ए-नौ है धूम मची है घर घर में
साथियो उट्ठो सुबूही से छलकाएँ भर के अयाग़ों को
सफ़दर मीर
ग़ज़ल
ईद है और साक़ी-ए-नौ-ख़ेज़ मयख़ाने में है
आज पीने का मज़ा पी कर बहक जाने में है