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ग़ज़ल
मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था
दौर-ए-जाम-ए-बे-ख़ुदी बेगाना-ए-अय्याम था
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
वो जनाज़े पर मिरे किस वक़्त आए देखना
जब कि इज़्न-ए-आम मेरे अक़रिबा कहने को हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आज मयख़ाने में इज़्न-ए-आम था साक़ी तिरे
इस लिए दुनिया इधर आई थी और कुछ भी नहीं