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ग़ज़ल
साक़िया ये आइना है तेरा मय-ख़ाना नहीं
है हर इक साग़र कफ़-ए-बिन्तुल-अ'नब में आइना
मुज़फ़्फ़र अली असीर
ग़ज़ल
बहार आई है बिंत-उल-इनब पे जोबन है
गिरह में दाम कोई बादा-ख़्वार रखता है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
बाँधा है बर्ग-ए-ताक का क्यूँ सर पे सेहरा
किया 'आबरू' का ब्याह है बिंत-उल-एनब सेती
आबरू शाह मुबारक
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ग़ज़ल
रहे जो ताक में बिंत-उल-इनब के ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क
तो जिन की तरह रहे बंद ख़्वाब शीशे में
बेख़ुद मोहानी
कुल्लियात
अब कैसा ज़ोहद-ओ-तक़्वा दारू है और हम हैं
बिंत-उल-इनब के अपना सब कुछ गया घुसड़ कर
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
मैं मुँह नहीं लगाया बिंत-उल-इनब को गाहे
तब था जवान-ए-सालेह अब पीर-ए-मय-कदा हूँ
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
काम उस के लब से है मुझे बिंत-उल-इनब से क्या
है आब-ए-ज़ि़ंदगी भी तो ले जाए मुर्दा-शो
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सुब्ह तक रक़्स-कुनाँ बिन्त-ए-इनब देखेंगे
आज वो तुर्फ़ा-तमाशा है कि सब देखेंगे