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नज़्म
परछाइयाँ
उठो कि आज हर इक जंग-जू से ये कह दें
कि हम को काम की ख़ातिर कलों की हाजत है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अज्ञात
रेख़्ती
चूम कर ज़ुल्फ़-ए-दोता फँसता नहीं जालों के बीच
साफ़ बच जाता है गोरा सैकड़ों कालों के बीच
मोहसिन ख़ान मोहसिन
नज़्म
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
हाए कश्कोल-ए-गदाई ले के अब जाएगा कौन
लाल गंदुम ला के हम कालों को खिलवाएगा कौन
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
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ग़ज़ल
दो कलों के बीच में इक आज हूँ उलझा हुआ
मेरी इस कम-फ़ुर्सती के कर्ब को समझो ज़रा
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
आँखों पे लटों का झुक आना तासीर-ए-नज़र का बढ़ जाना
अमृत के कटोरों में आख़िर कुछ ज़हर मिलाया कालों ने
इज्तिबा रिज़वी
नज़्म
विशाल देश
बसों के मोटरों के दौड़ते हुए ये सिलसिले
कलों की गड़गड़ाहटो में ज़िंदगी के वलवले
वफ़ा सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मग़रिब में हैं ख़ुद हाथ हैं मशरिक़ की कलों पर
इन नफ़्स के बंदों से जसामत कोई पूछे
सय्यद मोहम्मद अहमद नक़वी
कुल्लियात
रखो मत सर चढ़ाए दिलबरों के गूँधे बालों को
खिलाना खोलना मुश्किल बहुत है ऐसे कालों को
मीर तक़ी मीर
नज़्म
रुस्वाई
मेहंदी रचेगी पोरों कहीं जा के दैर में
कंघी करूँ तो चढ़ती है कालों की और लहर