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नज़्म
मरहूम और महरूम
मैं बोझ काँधों पे ऐसे उठा के चलता हूँ
तुम्हारा जैसे जनाज़ा उठा के चलता था
ज़ुबैर अली ताबिश
ग़ज़ल
देख ले मेरी मय्यत का मंज़र लोग कांधा बदलते चले हैं
एक तेरी भी डोली चली है कोई कांधा बदलता नहीं है
फ़ना बुलंदशहरी
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नज़्म
हिण्डोला
मैं कांधा देता रहा अपने जीते मुर्दे को
ये सोचता था कि अब क्या करूँ कहाँ जाऊँ