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ग़ज़ल
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
इन ना-तावनियों पे भी थे ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर
क्यूँ कर निकाले जाते न उस की गली से हम
मोमिन ख़ाँ मोमिन
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ग़ज़ल
तू ने रिंदों का हक़ मारा मय-ख़ाने में रात गए
शैख़ खरे सय्यद हैं हम तो हम ने सुनाया शाद हुए
जौन एलिया
ग़ज़ल
अगर दम भर भी मिट जाती ख़लिश ख़ार-ए-तमन्ना की
दिल-ए-हसरत-तलब को अपनी हस्ती से गिला होता
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
ख़ार-ए-चमन थे शबनम शबनम फूल भी सारे गीले थे
शाख़ से टूट के गिरने वाले पत्ते फिर भी पीले थे
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
अगस्त-1952
है दश्त अब भी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से 'फ़ैज़'
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुए तो हैं