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ग़ज़ल
बहुत रुक रुक के चलती है हवा ख़ाली मकानों में
बुझे टुकड़े पड़े हैं सिगरेटों के राख-दानों में
अहमद मुश्ताक़
नज़्म
ऐ दिल-ए-बेताब ठहर
तीरगी है कि उमंडती ही चली आती है
शब की रग रग से लहू फूट रहा हो जैसे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अधूरी नस्ल का पूरा सच
उम्र का सूरज सिवा नेज़े पे आया
गर्म शिरयानों में बहते ख़ून का दरिया भँवर होने लगा
सईद अहमद
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है