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ग़ज़ल
मेरी पहचान तो मुश्किल थी मगर यारों ने
ज़ख़्म अपने जो कुरेदे हैं तो पाया है मुझे
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
क्यूँ आ के हर इक शख़्स मिरे ज़ख़्म कुरेदे
क्यूँ मैं भी हर इक शख़्स को हाल अपना सुनाऊँ
अतहर नफ़ीस
नज़्म
तसलसुल
चश्म-ए-महताब भी शबनम की जगह ख़ूँ रोई
इल्म ने आज कुरेदे हैं वो ज़ुल्मात के ढेर
अहमद फ़राज़
नज़्म
हिज्र के पर भीग जाएँ
कहाँ तक ख़ौफ़ के बे-शक्ल सहरा की हथेली पर
कुरेदे जाएँ आँखें और
नोशी गिलानी
ग़ज़ल
मुद्दत से कुरेदे भी नहीं याद किसी की
फिर ज़ख़्म मिरे सीने के भर क्यों नहीं जाते
पंडित विद्या रतन आसी
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ग़ज़ल
ज़िंदगी भर पै-ब-पै हम ने कुरेदे अपने ज़ख़्म
हम से छुट कर उस पे क्या गुज़री ये सोचा ही नहीं
अजमल अजमली
नज़्म
नुक़ूश
कौन बरसों की बुझी राख कुरेदे ऐ दोस्त
गाँव से दूर किसी अजनबी रह-रव की तरह
प्रेम वारबर्टनी
ग़ज़ल
चुभो दिए हैं दिलों में जो ख़ार-ए-ग़म तुम ने
उन्हीं से ज़ख़्म कुरेदे वफ़ा-शिआ'रों ने
सलाहुद्दीन फ़ाइक़ बुरहानपुरी
नज़्म
बहुत शोर है
वो हँसती है और गिर्या-ए-नीम-शब के समुंदर पे अपना अलम खोलती है
हाथ जल मकड़ियों से कुरेदे हुए
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
ग़ज़ल
राख के ढेर हैं हम कौन कुरेदे हम को
लाख हम अहल-ए-वफ़ा आतिश-ए-पिन्हाँ में जलें