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ग़ज़ल
ऐ जुनून-ए-बंदगी-ए-शौक़ ये क्या कर दिया
उन के धोके में न जाने किस को सज्दा कर दिया
कैफ़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ख़ुलूस-ए-इज्ज़-ओ-बंदगी रहीन-ए-दर नहीं तो क्या
हरम से बे-नियाज़ है अगर मिरी जबीं तो क्या
मंज़ूर अहमद मंज़ूर
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ग़ज़ल
मिन्नत-ए-क़ासिद कौन उठाए शिकवा-ए-दरबाँ कौन करे
नामा-ए-शौक़ ग़ज़ल की सूरत छपने को दो अख़बार के बीच
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
झुलसी सी इक बस्ती में
सब गलियों में तरनजन थे और हर तरनजन में सखियाँ थीं
सब के जी में आने वाली कल का शौक़-ए-फ़रावाँ था