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ग़ज़ल
सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सब की ज़बाँ ठहरी है
जो भी चल निकली है वो बात कहाँ ठहरी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तराना
दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे
कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सर-ए-वादी-ए-सीना
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना
फिर रंग पे है शोला-ए-रुख़्सार-ए-हक़ीक़त
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
शरह-ए-फ़िराक़ मदह-ए-लब-ए-मुश्कबू करें
ग़ुर्बत-कदे में किस से तिरी गुफ़्तुगू करें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती
हम अपने दिल की धड़कन को तिरी आवाज़-ए-पा समझे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ज़िंदाँ की एक सुब्ह
रात बाक़ी थी अभी जब सर-ए-बालीं आ कर
चाँद ने मुझ से कहा 'जाग सहर आई है