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नज़्म
परछाइयाँ
महाज़-ए-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिस का ज़िक्र तुम्हें ज़िंदगी से प्यारा था
साहिर लुधियानवी
हिंदी ग़ज़ल
ये धुँदलका है नज़र का तू महज़ मायूस है
रौज़नों को देख दीवारों में दीवारें न देख
दुष्यंत कुमार
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ग़ज़ल
सर उठाते हैं यहाँ भी अस्र-ए-हाज़िर के यज़ीद
कल ये ख़ित्ता भी महाज़-ए-कर्बला हो जाएगा