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असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल 39
नज़्म 58
अशआर 39
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था
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तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
व्याख्या
यह शे’र इसरार-उल-हक़ मजाज़ के मशहूर अशआर में से एक है। माथे पे आँचल होने के कई मायने हैं। उदाहरण के लिए शर्म व लाज का होना, मूल्यों का रख रखाव होना आदि और भारतीय समाज में इन चीज़ों को नारी का शृंगार समझा जाता है। मगर जब नारी के इस शृंगार को पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की कमज़ोरी समझा जाता है तो नारी का व्यक्तित्व संकट में पड़ जाता है। इसी तथ्य को शायर ने अपने शे’र का विषय बनाया है। शायर नारी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यद्यपि तुम्हारे माथे पर शर्म व हया का आँचल ख़ूब लगता है मगर उसे अपनी कमज़ोरी मत बना। वक़्त का तक़ाज़ा है कि आप अपने इस आँचल से क्रांति का झंडा बनाएं और इस ध्वज को अपने अधिकारों के लिए उठाएं।
शफ़क़ सुपुरी
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
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क़ितआ 10
क़िस्सा 29
पुस्तकें 45
चित्र शायरी 8
मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़्मे गा नहीं सकता सकूँ लेकिन मिरे दिल को मयस्सर आ नहीं सकता कोई नग़्मे तो क्या अब मुझ से मेरा साज़ भी ले ले जो गाना चाहता हूँ आह वो मैं गा नहीं सकता मता-ए-सोज़-ओ-साज़-ए-ज़िंदगी पैमाना ओ बरबत मैं ख़ुद को इन खिलौनों से भी अब बहला नहीं सकता वो बादल सर पे छाए हैं कि सर से हट नहीं सकते मिला है दर्द वो दिल को कि दिल से जा नहीं सकता हवस-कारी है जुर्म-ए-ख़ुद-कुशी मेरी शरीअ'त में ये हद्द-ए-आख़िरी है मैं यहाँ तक जा नहीं सकता न तूफ़ाँ रोक सकते हैं न आँधी रोक सकती है मगर फिर भी मैं उस क़स्र-ए-हसीं तक जा नहीं सकता वो मुझ को चाहती है और मुझ तक आ नहीं सकती मैं उस को पूजता हूँ और उस को पा नहीं सकता ये मजबूरी सी मजबूरी ये लाचारी सी लाचारी कि उस के गीत भी दिल खोल कर मैं गा नहीं सकता ज़बाँ पर बे-ख़ुदी में नाम उस का आ ही जाता है अगर पूछे कोई ये कौन है बतला नहीं सकता कहाँ तक क़िस्स-ए-आलाम-ए-फ़ुर्क़त मुख़्तसर ये है यहाँ वो आ नहीं सकती वहाँ मैं जा नहीं सकता हदें वो खींच रक्खी हैं हरम के पासबानों ने कि बिन मुजरिम बने पैग़ाम भी पहुँचा नहीं सकता
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ फिर वो टूटा इक सितारा फिर वो छूटी फुल-जड़ी जाने किस की गोद में आई ये मोती की लड़ी हूक सी सीने में उठ्ठी चोट सी दिल पर पड़ी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ रात हँस हँस कर ये कहती है कि मय-ख़ाने में चल फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रुख़ के काशाने में चल ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ हर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ रानाइयाँ हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयाँ बढ़ रही हैं गोद फैलाए हुए रुस्वाइयाँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ रास्ते में रुक के दम ले लूँ मिरी आदत नहीं लौट कर वापस चला जाऊँ मिरी फ़ितरत नहीं और कोई हम-नवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ मुंतज़िर है एक तूफ़ान-ए-बला मेरे लिए अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए पर मुसीबत है मिरा अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब जैसे मुफ़्लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आख़िर क्या करूँ मेरा पैमाना छलक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ ज़ख़्म सीने का महक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ जी में आता है ये मुर्दा चाँद तारे नोच लूँ इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने सैकड़ों सुल्तान-ए-जाबिर हैं नज़र के सामने सैकड़ों चंगेज़ ओ नादिर हैं नज़र के सामने ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ले के इक चंगेज़ के हाथों से ख़ंजर तोड़ दूँ ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ उस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ फिर वो टूटा इक सितारा फिर वो छूटी फुल-जड़ी जाने किस की गोद में आई ये मोती की लड़ी हूक सी सीने में उठ्ठी चोट सी दिल पर पड़ी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ रात हँस हँस कर ये कहती है कि मय-ख़ाने में चल फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रुख़ के काशाने में चल ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ हर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ रानाइयाँ हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयाँ बढ़ रही हैं गोद फैलाए हुए रुस्वाइयाँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ रास्ते में रुक के दम ले लूँ मिरी आदत नहीं लौट कर वापस चला जाऊँ मिरी फ़ितरत नहीं और कोई हम-नवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ मुंतज़िर है एक तूफ़ान-ए-बला मेरे लिए अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए पर मुसीबत है मिरा अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब जैसे मुफ़्लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आख़िर क्या करूँ मेरा पैमाना छलक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ ज़ख़्म सीने का महक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ जी में आता है ये मुर्दा चाँद तारे नोच लूँ इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने सैकड़ों सुल्तान-ए-जाबिर हैं नज़र के सामने सैकड़ों चंगेज़ ओ नादिर हैं नज़र के सामने ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ले के इक चंगेज़ के हाथों से ख़ंजर तोड़ दूँ ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ उस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ