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नज़्म
मन-तू-शुदम
जंगल में अगर तुम ने देखा हो, हिरन होते हैं
हिरन की सुनहरी खाल और हिन्दू लड़कियों जैसी गहरी आँखें
महमूदा ग़ाज़िया
नज़्म
शिकवा
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
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सआदत हसन मन्टो
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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
सो ज़ाहिर है इसे शय से ज़ियादा मानता हूँ मैं
तुम्हें हो सुब्ह-दम तौफ़ीक़ बस अख़बार पढ़ने की
जौन एलिया
नज़्म
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं