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ग़ज़ल
यहाँ तक आए हैं तय हम दो-मंज़िला कर के
तुम्हारी बज़्म में पहुँचे हैं आज-कल के चले
आग़ा हज्जू शरफ़
नज़्म
मिडिल-क्लास
ये छोटी छोटी सी ख़्वाहिशें थीं
किसी बड़े शहर की कई मंज़िला इमारत से गिर पड़ीं हैं
सलमान सरवत
हास्य
ज़मीं का रक़्स-ए-पैहम सर्द लोहे की नुकीली कील, ज़ंजीर-ए-कशिश, शाने
और इक नौ मंज़िला बिल्डिंग
असद मोहम्मद ख़ाँ
नज़्म
कराची
सह-मंज़िला अश्जार के पीछे लरज़ता ट्राम का लोहा
गुज़रती रात की चर्बी पे जमते आइने से दिन
अब्दुर्रशीद
ग़ज़ल
हज़ार दिल है तिरा मशरिक़-ए-मह-ओ-ख़ुर्शीद
ग़ुबार-ए-मंज़िल-ए-जानाँ नहीं तो कुछ भी नहीं