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नज़्म
परछाइयाँ
चाहा तो मगर अपना न सकीं
हम तो दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िल-ए-तस्कीं पा न सकें
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
अव्वल ओ आख़िर फ़ना बातिन ओ ज़ाहिर फ़ना
नक़्श-ए-कुहन हो कि नौ मंज़िल-ए-आख़िर फ़ना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है
शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
वालिदा मरहूमा की याद में
मुख़्तलिफ़ हर मंज़िल-ए-हस्ती को रस्म-ओ-राह है
आख़िरत भी ज़िंदगी की एक जौलाँ-गाह है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तलाश-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद की गर्दिश उठ नहीं सकती
कमर खोले हुए रस्ते में हम रहज़न के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
नज़्म
हमारे उस्ताद
मंज़िल-ए-इ'ल्म के हम लोग मुसाफ़िर हैं मगर
रास्ता हम को दिखाते हैं हमारे उस्ताद