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नज़्म
जब तिरे शहर से गुज़रता हूँ
जिस में कोई मकीं न रहता हो
दिल वो सूनी गली है तेरे बा'द
सैफ़ुद्दीन सैफ़
ग़ज़ल
निदा आई कि आशोब-ए-क़यामत से ये क्या कम है
गिरफ़्ता चीनियाँ एहराम ओ मक्की ख़ुफ़्ता दर बतहा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
एक रह-गुज़र पर
और अब ये राह-गुज़र भी है दिल-फ़रेब ओ हसीं
है इस की ख़ाक में कैफ़-ए-शराब-ओ-शेर मकीं