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ग़ज़ल
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई' तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
गुनहगारों में शामिल मुद्द'ई भी और मुल्ज़िम भी
तिरा इंसाफ़ देखा और 'अदालत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
ज़माना देखता हूँ क्या करेगा मुद्दई हो कर
नहीं भी हो तो बिस्मिल्लाह मेरे मुद्दआ तुम हो
सरशार सैलानी
ग़ज़ल
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुद्दई बस्ता-ज़बाँ क्यूँ न हो सुन कर मिरे शेर
क्या चले सेहर की जब साहिब-ए-एजाज़ आया