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ग़ज़ल
क्या बोलेगा आज तराज़ू भेद अभी खुल जाएगा
इक पलड़े में सच रक्खा है एक में चाँदी रक्खी है
इन्तिज़ार ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
अपनी नज़र के बाट न रक्खें 'साज़' हम इक पलड़े में
बोझल तन्क़ीदों से क्यूँ अपने इज़हार को तौलें
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
निगाह-ए-आस से देखे है सब तरफ़ सर-ए-हश्र
किसी के पलड़े में 'गुलफ़ाम' नेकियाँ कम हैं