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ग़ज़ल
कितने कानों के वो कच्चे हैं कि अल्लाह की पनाह
क्या रक़ीबों की बन आई है इलाही तौबा
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इलाही दर्द-ए-ग़म की सरज़मीं का हाल क्या होता
मोहब्बत गर हमारी चश्म-ए-तर से मेंह न बरसाती
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
नज़्म
रामायण का एक सीन
देखो ये क़ुदरत-ए-चमन-आरा-ए-रोज़गार
वो अब्र-ओ-बाद ओ बर्फ़ में रहते हैं बरक़रार
चकबस्त बृज नारायण
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ग़ज़ल
मैदान-ए-कार-ज़ार में 'अख़्तर' कभी भी मैं
ख़ौफ़-ए-सिनान-ए-ज़िल्ल-ए-इलाही न लाऊँगा
अख़्तर शाहजहाँपुरी
मर्सिया
जो सानी-ए-महबूब-ए-इलाही है कहाता
इक नूर जो जाता है तो इक नूर है आता
मीर मुज़फ़्फ़र हुसैन ज़मीर
नज़्म
इल्म की ज़रूरत
ग़रज़ चारों तरफ़ अब इल्म ही की बादशाही है
कि उस के बाज़ूओं में क़ुव्वत-ए-दस्त-ए-इलाही है
अहमक़ फफूँदवी
मनक़बत
क़दम आहिस्ता रख ये सामने दरबार-ए-शाही है
यहाँ का ज़र्रा ज़र्रा महव-ए-अज़़कार-ए-इलाही है
अहमद अरसलान
ग़ज़ल
सैर की क़ुदरत-ए-ख़ालिक़ की बुताँ में 'सौदा'
मुश्त भर ख़ाक में जल्वा है भला क्या क्या कुछ