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नज़्म
शिकवा
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
पाँव शेरों के भी मैदाँ से उखड़ जाते थे
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
साअद-ए-सीमीं दोनों उस के हाथ में ला कर छोड़ दिए
भूले उस के क़ौल-ओ-क़सम पर हाए ख़याल-ए-ख़ाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया
जवानी भटकती है बद-कार बन कर
जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर