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नज़्म
देहली
दरिंदे दौड़ते फिरते हैं सड़ती लाशों में
लहू से तर किए नाख़ून गोश्त दाँतों में
वामिक़ जौनपुरी
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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
आज भी हो जो ब्राहीम का ईमाँ पैदा
आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुलिस्ताँ पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कभी कभी
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मिरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है