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ग़ज़ल
कू-ए-जानाँ में भी ख़ासा था तरह-दार 'फ़राज़'
लेकिन उस शख़्स की सज-धज थी सर-ए-दार जुदा
अहमद फ़राज़
नज़्म
तुम्हारे हुस्न के नाम
सलाम लिखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम
बिखर गया जो कभी रंग-ए-पैरहन सर-ए-बाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक रह-गुज़र पर
गुदाज़ जिस्म क़बा जिस पे सज के नाज़ करे
दराज़ क़द जिसे सर्व-ए-सही नमाज़ करे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
तल्क़ीन सर-ए-क़ब्र पढ़ें 'मोमिन'-ए-मग़्फ़ूर
फ़रियाद दिल-ए-'ग़ालिब'-ए-मरहूम से निकले
रईस अमरोहवी
ग़ज़ल
घर की बुनियादें दीवारें बाम-ओ-दर थे बाबू जी
सब को बाँध के रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी