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ग़ज़ल
दम भर में जा पहुँचते हैं याँ के मुक़ीम वाँ
ये मरहला नहीं है सवाद-ए-अदम से दूर
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
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ग़ज़ल
होवे वो शोख़-चश्म अगर मुझ से चार चश्म
क़ुर्बां करूँ मैं चश्म पर उस के हज़ार चश्म
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
दुश्मन पे रख के देते हो गाली इताब में
है हर सुख़न ज़बाँ पे तुम्हारी हिजाब में