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ग़ज़ल
बिछड़ के दोनों ही आबाद हैं ख़ुदा शाहिद
वो अपने घर में तो हम अपने घर में रहते हैं
अब्दुस्समद ख़तीब
ग़ज़ल
देखे शक्ल-ए-बर्क़-ए-आलम-ताब उस दिलदार की
है ये दीदा है ये जुरअत नर्गिस-ए-बीमार की
फ़ज़ल हुसैन साबिर
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ग़ज़ल
जितने शिकवे हैं तुझी से हैं कि इस आलम में
मुझ को बुलबुल किया सय्याद को सय्याद किया
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
सितम-ईजाद कहते हैं ये क्यूँ मा'शूक़ को शाइ'र
सितम भी क्या कोई शय है जिसे ईजाद करते हैं
ज़रीफ़ लखनवी
ग़ज़ल
वो मुझ को सताते हैं तो कहता हूँ मैं 'साबिर'
बुत दरपए-आज़ार हैं अल्लाह तू ही है
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
ग़रज़ 'कैफ़ी'-ओ-'शाइर' 'साइल'-ओ-'बेख़ुद' 'हसन' 'शैदा'
अलम हैं अर्सा-ए-इल्म-ओ-अदब के शहसवारों में