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सआदत हसन मंटो
ग़ज़ल
हर इक अपनी ज़रूरत के तहत हम से है मिलता
हमें भी अब कोई हस्ब-ए-ज़रूरत चाहिए है
फ़रहत नदीम हुमायूँ
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नज़्म
ये बस्ती मेरी बस्ती है
ये अपने नैन अपने नक़्श और आवाज़ का जादू
न जाने कौन सा क़ानून है जिस के तहत
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
'शुजाअ' तेरे ही तहत-अल-लफ़्ज़ से कुछ हो तो हो वर्ना
ग़ज़ल में शाएरान-ए-ख़ुश-गुलू से कुछ नहीं होगा
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
चढ़ते हैं लोग फाँसी पे किस जुर्म के तहत
तख़्ती तो पढ़ ही लेते हो तख़्ते पढ़ा करो