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ग़ज़ल
यूँ तो जो चाहे यहाँ साहब-ए-महफ़िल हो जाए
बज़्म उस शख़्स की है तू जिसे हासिल हो जाए
बहज़ाद लखनवी
रेख़्ती
या रब शब-ए-जुदाई तो हरगिज़ न हो नसीब
बंदी को यूँ जो चाहे तो कोल्हू में पेल डाल
रंगीन सआदत यार ख़ाँ
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नअत
जो वो चाहे तो मुझ को इक नज़र से ज़िंदगी बख़्शे
जो वो चाहे तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता भी बेदार हो जाए
अर्श मलसियानी
नज़्म
शिकवा
तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हबाब
रह-रव-ए-दश्त हो सैली-ज़दा-ए-मौज-ए-सराब
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात