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नज़्म
शिकवा
थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम
फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ख़िज़्र-ए-राह
तोड़ देता है कोई मूसा तिलिस्म-ए-सामरी
सरवरी ज़ेबा फ़क़त उस ज़ात-ए-बे-हम्ता को है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुम्हारे हुस्न के नाम
निखर गई है कभी सुब्ह दोपहर कभी शाम
कहीं जो क़ामत-ए-ज़ेबा पे सज गई है क़बा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
तजल्ली चेहरा-ए-ज़ेबा की हो कुछ जाम-ए-रंगीं की
ज़मीं से आसमाँ तक आलम-ए-अनवार हो जाए
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
क्या क्या हसीं थे जम्अ' परिस्ताँ का तख़्ता था
नज़रों में फिरते हैं रुख़-ए-ज़ेबा-ए-लखनऊ
वाजिद अली शाह अख़्तर
नज़्म
ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़रज़ंदों से ख़िताब
मुजरिमों के वास्ते ज़ेबा नहीं ये शोर-ओ-शैन
कल 'यज़ीद' ओ 'शिम्र' थे और आज बनते हो 'हुसैन'