aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "جامعہ"
मकतबा जामिया लिमिटेड, नई दिल्ली
पर्काशक
जामिया हमदर्द, देहली
योगदानकर्ता
जामिया उसमानिया सरकार-ए-अाली, हैदराबाद, दकन
असरार जामई
1937 - 2020
शायर
इदारा तालीफ़-ओ-तर्जुमा जामिआ पंजाब, लाहौर
जामिया उस्मानिया, हैदराबाद
मतबा जामिया उस्मानिया हैदराबाद, दक्कन
बज़्म-ए-क़ानून जामिया उस्मानिया
संपादक
जामिआ उस्मानिया, सरकार आली, हैदराबाद
जामिया महमूदिया अलीपुर, मेरठ
माहनामा किताब नुमा, जामिया नगर, नई दिल्ली
शोबा-ए-उर्दू जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
अल-किताब इंटरनेशनल, जामिया नगर, नई दिल्ली
मज्लिस काबीना बज़्म-ए-तारीख़ जामिया उस्मानिया
शोबा-ए-उर्दू जामिया उस्मानिया
"घर की फ़िकरों से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती, कई बार इरादा किया कि तुझे बुला भेजूँ मगर मौक़ा ही न मिला।"इतने में राम दुलारी के शौहर मिस्टर गुरु सेवक ने आकर बड़ी साली को सलाम किया। बिल्कुल अंग्रेज़ी वज़ा थी। कलाई पर सोने की घड़ी। आँखों पर सुनहरी ऐनक बिल्कुल अपटूडेट जैसे कोई ताज़ा दादर स्वेन हो। चेहरे से ज़हानत, मतानत और शराफ़त बरस रही थी। वो इतना ख़ुश-रू और जामा-ज़ेब है। रूप कुमारी को इस बात का गुमान भी न था।
इस क़िस्म की दराज़ नफ़सी और अदम मुनासिबत से जोश साहब का कलाम भरा पड़ा है। उनकी एक और मशहूर नज़्म “फ़ितना-ए-ख़ानक़ाह” जो अच्छी तंज़िया नज़्म है और आला दर्जे की होती अगर उसमें भी वही उयूब न होते जो हमने “जंगल की शाहज़ादी” में अभी देखे।ईहाम, रिआयत और मुनासिबत, उर्दू शोअरा ने मअनी आफ़रीनी के ये तीन नए तरीक़े कमोबेश अज़ ख़ुद दरयाफ़्त किए। ये ज़माना सत्रहवीं सदी के अवाख़िर और अठारवीं सदी के अवाइल का था। फिर कोई सौ बरस तक क्लासिकी ग़ज़ल, बल्कि क्लासिकी शे’र की शे’रियात में कोई नया मोड़ न आया। फिर अठारवीं सदी के अवाख़िर में (या ग़ालिब के साल पैदाइश 1797 ई. से पाँच सात बरस पहले) दिल्ली में शाह नसीर ने और लखनऊ में नासिख़ ने ख़्यालबंदी का आग़ाज़ किया। शाह नसीर का साल-ए-तव्वुलुद नहीं मालूम लेकिन नसीर-ओ-नासिख़ की तारीख़-ए-वफ़ात एक है। (1838 ई.) उस वक़्त तक ख़्यालबंदी पूरी तरह जम चुकी थी और इस तर्ज़ के सबसे बड़े शायर ग़ालिब ने अपनी उस्तादी क़ायम कर ली थी। ज़ौक़ तो पहले ही इस रंग के गिरवीदा हो चुके थे। मोमिन ने भी उस अंदाज़ को एक हद तक अपनाया था।
जिगर साहब “शोला-ए-तूर” की इशाअत से पहले भी शायर थे और उनका एक मजमूआ-ए-कलाम शाए हो कर गुमनाम हो चुका था। उस ज़माने के कलाम में भी एक तीखापन था। मगर सुना है कि किसी मार्का-ए-इश्क़ में नाकाम होने के बाद उनके साथ उनके कलाम की भी दुनिया बदल गई। जिगर की ग़ज़ल में जो नया मिज़ाज पाया जाता है वो उसी महरूमी का नतीजा है। इश्क़ की आग भड़क कर “शोला-ए-तूर” बन गई। “शो...
बीसवीं सदी का आरम्भिक दौर पूरे विश्व के लिए घटनाओं से परिपूर्ण समय था और विशेष तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के लिए यह एक बड़े बदलाव का युग था। नए युग की शुरुआत ने नई विचारधाराओं के लिए ज़मीन तैयार की और पश्चिम की विस्तारवादी आकांछाओं को गहरा आघात पहुँचाया। इन परिस्थितियों ने उर्दू शायरी की विषयवस्तु और मुहावरे भी पूरी तरह बदल दिए और इस बदलाव की अगुआई का श्रेय निस्संदेह अल्लामा इक़बाल को जाता है। उन्होंने पाठकों में अपने तेवर, प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं, पात्रों और इस्लामी इतिहास की विभूतियों के माध्यम से नए और प्रगतिशील विचारों की ऎसी ज्योति जगाई जिसने सब को आश्चर्यचकित कर दिया। उनकी शायरी की विश्व स्तर पर सराहना हुई साथ ही उन्हें विवादों में भी घसीटा गया। उन्हें पाठकों ने एक महान शायर के तौर पर पूरा - पूरा सम्मान दिया और उनकी शायरी पर भी बहुत कुछ लिखा गया है। उन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा है और यहां भी उन्हें किसी से कमतर नहीं कहा जा सकता। 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' और 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' जैसी उनकी ग़ज़लों - नज़्मों की पंक्तियाँ आज भी अपनी चमक बरक़रार रखे हुए हैं। यहां हम इक़बाल के २० चुनिंदा अशआर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। अगर आप हमारे चयन को समृद्ध करने में हमारी मदद करना चाहें तो आपका रेख्ता पर स्वागत है।
घर के मज़मून की ज़्यादा-तर सूरतें नई ज़िंदगी के अज़ाब की पैदा की हुई हैं। बहुत सी मजबूरियों के तहत एक बड़ी मख़लूक़ के हिस्से में बे-घरी आई। इस शायरी में आप देखेंगे कि घर होते हुए बे-घरी का दुख किस तरह अंदर से ज़ख़्मी किए जा रहा है और रूह का आज़ार बन गया है। एक हस्सास शख़्स भरे परे घर में कैसे तन्हाई का शिकार होता है, ये हम सब का इज्तिमाई दुख है इस लिए इस शायरी में जगह जगह ख़ुद अपनी ही तस्वीरें नज़र आती हैं।
इल्म को मौज़ू बनाने वाले जिन शेरों का इन्तिख़ाब यहाँ पेश किया जा रहा है उस से ज़िंदगी में इल्म की अहमियत और अफ़ादियत का अंदाज़ा होता है। इस के अलावा कुछ ऐसे पहलू भी इन शेरों में मौजूद है जो इल्म के मौज़ू के सियाक़ में बिलकुल नए और अछूते हैं। इल्म के ज़िरिये पैदा होने वाली मनफ़ियत पर उमूमन कम ग़ौर किया जाता। ये शायरी इल्म के डिस्कोर्स को एक नए ढंग से देखती है और तर्तीब देती है।
जामिआجامعہ
university
विश्वविद्यालय, यूनीवर्सिटी।
Qaraabaa deen-e-Majeedi
दफ़्तर जामिया तिब्बिया, दिल्ली
औषधि
Farhang-e-Istilahat-e-Jamia Usmaniya
जमील जालिबी
1991शब्द-कोश
उर्दू तन्क़ीद का सफ़र
ताबिश मेहदी
1999आलोचना
Sar Rishta-e-Taleef-o-Tarjuma Jamia Usmania Hyderabad
मुस्तफ़ा अली ख़ाँ फ़ातिमी
2009आलोचना
उर्दू तंक़ीद का सफ़र
2004
Firoz-ul-Lughat Urdu Jame
मौलवी फ़िरोज़ुद्दीन
2005शब्द-कोश
Jamia Usmania Ke Farzandon Ki Urdu Khidmaat
सय्यद मुहीउद्दीन क़ादरी ज़ोर
जामिया सल्फ़िया मरकज़ी दारुल उलूम बनारस का एक मुख़तसर तआरुफ़
1980
जामिया मिल्लिया इस्लामिया, तहरीक, तारीख़, रिवायत
शहाबुद्दीन अन्सारी
2003अन्य
जामिअात में उर्दू तहक़ीक़
रफ़ीउद्दीन हाश्मी
2008शोध
Jamia Millia Islamia-Auraq-e-Musavvar
शमीम हनफ़ी
2004जामिया,नई दिल्ली
मेमारान-ए-जामिया
ज़फ़र अहमद निज़ामी
2011आलोचना
Dar-ul-Tarjuma Jamia Usmaniya Ki Adabi Khidmat
मजीद बेदार
1993शब्द-कोश
उर्दू ज़बान-ओ-अदब के फ़रोग़ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया का हिस्सा
सुग़रा मेहदी
2013मज़ामीन / लेख
भागी नमाज़-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछचलता हूँ मैं भी टुक तो रहो मैं नशे में हूँ
तबादले से कुछ दिन पहले टोबाटेक सिंह का एक मुसलमान जो उसका दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया। पहले वो कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा, मगर सिपाहियों ने उसे रोका, “ये तुम से मिलने आया है... तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है।”बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़लदीन ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ रखा, “मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं लेकिन फ़ुर्सत ही न मिली... तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदोस्तान चले गए... मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की... तुम्हारी बेटी रूप कौर...”
रिश्ता-ए-नाज़ को जाना भी तो तुम से जानाजामा-ए-फ़ख़्र पहनना भी तुम्ही से सीखा
जब सुलताना कुछ न बोली तो वो उठ बैठा, “मैं समझा, लो अब मुझ से सुनो, जो कुछ तुम ने समझा, ग़लत है, मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो कुछ देकर जाते हैं। डाक्टरों की तरह मेरी भी फ़ीस है। मुझे जब बुलाया जाये तो फ़ीस देना ही पड़ती है।”सुल्ताना ये सुन कर चकरा गई मगर इसके बावजूद उसे बेअख्तियार हंसी आगई, “आप काम क्या करते हैं?”
मसलन ज़ैनब के मुकालमे में अनीस जब अली अकबर का ज़िक्र करते हैं तो शे'री आमद की रौ में अनीस के ज़ेहन में अली अकबर का तसव्वुर एक ऐसे "लाल" या दूल्हा का तसव्वुर बन कर उभरता है जिसके "हाथ पाँव में मेंहदी" लगी हुई है। उसी तरह जब दुल्हन का तसव्वुर उनके ज़ेहन में आता है तो उसके साथ-साथ "तारों की छाओं" का तसव्वुर भी दबे पाँव शे'र में दाख़िल हो जाता है। ऐसे ...
(9) सच्चाई का रास्ता चाहे जितना दुशवार हो, उसको तर्क करना तकलीफ़ और शर्मिंदगी का बाइस होगा।(10) ऐसों की मुसर्रत पर हसद न करो जो अहमक़ों की जन्नत में बसते हैं। सिर्फ़ अहमक़ ही ये समझेगा कि ये दुनिया या दौर हमें मसर्रत दे सकता है।
Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi
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