aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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Lala Dewedas
Author
Devendra Satyarthi
1908 - 2003
Devendra Mevadi
ko.ii shak hai to be-shak aazmaa letiraa hone kaa da.ave-daar huu.n mai.n
shajar hai.n ab samar-aasaar merechale aate hai.n da.avedaar mere
ko.ii fikrmand kulaah kaako.ii da.ave-daar qabaa kaa hai
ishq ke hijje bhii jo na jaane.n vo hai.n ishq ke daavedaarjaise Gazle.n raT kar gaate hai.n bachche school me.n
मुझसे सवाल किया गया कि बीवी कैसी होना चाहिए, मैं कहता हूँ कि कोई बुरी बीवी मुझको दिखा दे तो मैं इस सवाल का जवाब दूँ। मेरे ख़याल में बीवी ख़ुदा की ने’अमत है और ख़ुदा की ने’अमत कभी बुरी नहीं होती। बीवी की वज्ह से घर में रौशनी सी फैली रहती है। चराग़ के नीचे ज़रा सा अंधेरा भी होता है, जैसा कि मैं एक मर्तबा पहले भी कह चुका हूँ, अगर कोई नादान मर्द ज़री सी त...
दा'वेदारدعویدار
claimant
दावा करनेवाला, अपना अधिकार जतानेवाला, वादी, मुद्दई।
दा'वे-दारدعوے دار
Maloomat-e-Bharat Musafir
Devendra Issar
Nand Kishor Vikram
Articles / Papers
Path Ke Davedar
Sharat Chandra Chattopadhyay
Kokh
Shri Kamdev
Hindu-mat
Shri Kirshn Charittra Bhooma Sarwadh
Drama
Bandanwar
मेबल लड़कियों के कॉलेज में थी लेकिन हम दोनों कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी में एक ही मज़मून पढ़ते थे इस लिए अक्सर लेक्चरों में मुलाक़ात हो जाती थी। इसके अलावा हम दोस्त भी थे। कई दिलचस्पियों में एक दूसरे के शरीक होते थे। तस्वीरों और मौसीक़ी का शौक़ उसे भी था, मैं भी हमा-दानी का दावेदार। अक्सर गैलरियों या कॉन्सर्टों में इकट्ठे जाया करते थे। दोनों अंग्रेज़ी अदब के...
और बिलफ़र्ज़ इन बातों से बच निकले तो क्या ज़याफ़त के मौक़ा पर किसी नियम ता’लीम-ए-याफ़्ता हमअस्र ने जो तनख़्वाह मैं आपसे बरतरी का दा’वेदार है आपकी आज़ाद मंशी का मज़हका उड़ाया? और जब आप पिटे हुए नज़र आये तो आप पर क़हक़हे बुलंद नहीं हुए?अगर आपको ऐसी मंज़िलें पेश नहीं आयीं तो कराची सबसे अलग-थलग कोई जगह होगी या फिर बेज़ारी और बददिली पक रही होगी और आपको अभी दिखाई या सुनाई न दी होगी वर्ना जिस हुस्न-ए-मज़ाक़ पर आपको ग़र्रा है वो तो आजकल एक मुहाजिर यतीम की तरफ़ भूका और नंगा किसी खन्डर के कोने में सर बज़ानू दुबका बैठा है और बाहर पड़ा पड़ मेंह बरस रहा है। और आंधियां चल रही हैं।
“कैसी तहरीक? वल्लाह मुझे तो इसके मुतअ'ल्लिक़ इ'ल्म नहीं।”“अजी यही किसान कहते हैं ना। ज़मीन में हल हम जोतते हैं। खेती-किसानी हम करते हैं। जाड़े-गर्मी की सब तकलीफ़ें हम सहते हैं। मगर जब फ़स्ल पक कर तैयार होती है तो ज़मींदार सारे अनाज का दावे-दार बन जाता है। और हमारे लिए इतना भी नहीं छोड़ता कि हमारे बीवी-बच्चे दो वक़्त अपना पेट भर सकें। वो कहते हैं, ये सच है कि ज़मींदार ज़मीन का मालिक है। वो इतनी सी बात का हम से बदर्जहा ज़ियादा फ़ाएदा उठाता है। लिहाज़ा हमें अपनी मेहनत का पूरा-पूरा हिस्सा मिलना चाहिए। ये तहरीक रफ़्ता-रफ़्ता मुख़्तलिफ़ सूबों में फैलती जा रही है। और वो दिन दूर नहीं कि सारे मुल्क के किसान एक झंडे तले जमा' हो जाएँ और तमाम तअ'ल्लुक़ा-दारों और ज़मीन-दारों के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दें।”
बोले,तो फिर एक कुत्ता साथ रखा करो। तुम्हारी तरह वफ़ादार न हो तो मुज़ाइक़ा नहीं, लेकिन नाबीना न हो।हम तो अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि शाहान-ए-सल्फ़, बिलख़ुसूस बा'ज़ मुग़ल फरमाँरवा, अपने सरकश सूबेदारों, शोरा पुश्त शहज़ादों और तख़्त-व-ताज के दावेदार भाइयों की जल्लाद से आंखें निकलवा कर ख़ुद को तारीख़-ए-हिंद मुअल्लिफ़ा ईशवरी प्रशाद में ख़्वाह-मख़्वाह रुसवा कर गए।
“नफ़स” के मअनी क़रीब हैं, “सांस” और मअनी बईद हैं “गुफ़्तगु, तकल्लुम।” यहां यही बईद मअनी मुराद हैं। लेकिन मअनी अव्वल भी बिल्कुल बेकार नहीं। “नफ़स” बमअनी “सांस” और “मौज-ए-नसीम” में लतीफ़ रिआयत है।ये मिसालें इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि इक़बाल के यहां रिआयत, मुनासिबत और ईहाम का एहतिमाम मौजूद है, चाहे उस कसरत और तसलसुल से न हो जो हमें मीर, ग़ालिब, मीर अनीस वग़ैरा के यहां नज़र आता है। शायरी के मन्सब और शे’र के तफ़ाउल के बारे में इक़बाल के ख़्यालात से हमें इत्तिफ़ाक़ हो या न हो, लेकिन उनकी शायरी अमल आवरी (practice) से कमोबेश पूरा इत्तिफ़ाक़ करना पड़ता है। इक़बाल को क्लासिकी तौर तरीक़ों से पूरी आगाही थी और वो जदीद मग़रिबी तसव्वुरात से भी अच्छी तरह आश्ना थे। उनके बरख़िलाफ़ जोश जैसे शोअरा जो “क्लासिकी रख-रखाव” के साथ “जदीद ख़्यालात” को बयान करने के दावेदार थे, न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम के मिस्दाक़ हो कर रह गए।
उस दिन से वो अपनी मैना का इंतिज़ार करने लगी। एक दिन मैंने चिड़िया बाज़ार का एक फेरा भी किया। मैना के दाम देसी मैना से ज़ियादा थे, इतने ज़ियादा भी नहीं कि मैं मोल न ले सकता, लेकिन जितनी तनख़्वाह उस वक़्त हाथ आती थी उसमें नहीं ले सकता था। मैं चिड़ियों से ज़रा हट कर पिंजरे वालों के क़रीब चला गया। गाहकों की भीड़ थी और इस भीड़ में उस दिन पहली बार मैंने हुज़ूर-ए-...
अभी पिछले दिनों की बात है क़ादिरे मोची ने चमड़ा काटते हुए अपना अँगूठा भी काट लिया। सब लोगों की तरह ख़ुद क़ादिरे को भी यक़ीन था कि वो बचपन में हमजोलियों से शर्त बद कर शाम के बाद मासी गुल बानो के दरवाज़े को छू आया था तो मासी के जुनूँ ने अब जा कर उसका बदला लिया है।दिन के वक़्त इक्का दुक्का लोग गुल बानो के हाँ जाने का हौसला कर लेते थे और जब भी कोई गया यही ख़बर लेकर आया के मासी मुसल्ले पर बैठी तस्बीह पर कुछ पढ़ रही थी और रो रही थी। अलबत्ता शाम की अज़ान के बाद मासी गुल बानो के घर के क़रीब से गुज़रना क़ब्रिस्तान में से गुज़रने के बराबर हौलनाक था। बड़े बड़े हौसला मंदों से शर्तें बदी गईं कि रात को मासी से कोई बात कर आए मगर पाँच पाँच दस दस क़त्लों के दा’वेदार भी कहते थे हम ऐसी चीज़ों को क्यों छेड़ें जो नज़र ही नहीं आतीं और जो नज़र आ भी जाएं और हम बरछा उनके पेट में उतार भी दें तो वो खड़ी हँसती रहीं। अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने बड़े बड़े सज्जादा नशीनों से हासिल किए हुए ता’वीज़ अपने घरों में दबा रखे थे कि वो मासी गुल बानो के हाँ रातों रात जमा होने वाली बलाओं की छेड़-छाड़ से महफ़ूज़ रहीं। ये गाती, बर्तन बजाती और घनघरियां छनकाती हुई बलाऐं!
मशहदी लुंगी क़हक़हा मार कर हंसा। "ज़रा इस फ़ैशन आर्केड पर नज़र दौड़ाओ। रंग उन क़ौमों का है जिनका तुम हवाला दे रहे हो?""क्या ये मिनी स्कर्ट, ये सी थ्रो बीबी, उस आईडीयल के मज़हर हैं जिसके तुम दावेदार हो? क्या तुम्हारे दौर जिस पर तुम इतने नाज़ाँ हो, तुम्हारे मक़ासिद की निशानदेही करता है?" रूमी टोपी वाला जोश में बोला।
आदम के पहलू से निकली हुई हव्वा की बेटी अपने अज़ली मुसावियाना हक़ की दावेदार थी। लेकिन इब्न-ए-आदम जो औ’रत की पैदाइश के मक़सद को पहलू से गिरा कर पाँव से कुचलने का आदी था भला ये जाएज़ नुक्ता-चीनी क्यूँकि बर्दाश्त कर सकता था। वो सरापा शो’ला बन गया। बीवी की इतनी हिम्मत कि वो उससे बाज़-पुर्स करे? ये मर्द की आमिराना ज़हनियत पर एक ज़ोरदार तमाँचा था। काज़िम सदाक़...
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