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मंटो और फ़ह्हाशी

शमीम हनफ़ी

मंटो और फ़ह्हाशी

शमीम हनफ़ी

MORE BYशमीम हनफ़ी

     

    (1)
    मंटो एक वाक़िए’ का उ’नवान है। हमारे अफ़सानवी अदब की तारीख़ के शायद सबसे अहम और बा-मअ’नी और मुकम्मल वाक़िए’ का। इस वाक़िए’ का आग़ाज़ उसकी पहली कहानी के साथ हुआ था। अब अगर आप किसी अदबी मुअर्रिख़ से रुजू’ करें तो वो बताएगा कि इस वाक़िए’ का नुक़्ता-ए-इख़्तिताम 1955 के माह जनवरी की अठारवीं तारीख़ है। वो लम्हा जो ख़ुद मंटो के लिए इस वाक़िए’ के तसलसुल से बेज़ारी का शदीद-तरीन लम्हा था और जब मरने से पहले बार-बार उसके होंटों पर ये अल्फ़ाज़ आए थे कि, “अब ये ज़िल्लत ख़त्म हो जानी चाहिए!” लेकिन ये एक ऐसी ज़िल्लत थी जो मंटो की मौत के साथ भी ख़त्म न हो सकी।

    इस लम्हे ने मंटो को अपने मुक़द्दमात की पैरवी से तो नजात दिला दी मगर ऑनरेबल जस्टिस दीन-ए-मोहम्मद जिन्होंने मंटो के वजूद को नंग-ए-अदब क़रार दिया था, इस लम्हे के बा’द भी ज़िंदा रहने और मंटो की ज़िल्लत के साथ-साथ एक फ़िर्क़ा-ए-मलामतिया का क़िस्सा भी चलता रहा। अस्ल में अफ़राद चाहे रुख़्सत हो जाएँ, सोचने, जीने और ज़िंदगी को बरतने के असालीब जिन्हें हम किसी फ़र्द से मुख़तस कर सकें, जूँ के तूँ क़ाइम रहते हैं। चुनाँचे एक उस्लूब मंटो की ज़ात थी जो अपने तबई’ और ज़मानी रिश्तों से इन्क़िता’ के बा’द भी ज़िंदा है। इसी तरह एक और उस्लूब मलामत, दुश्नाम और एहतिसाब का वो क़हर-ए-बे-पनाह है जिसका सरचश्मा कभी मीज़ान-ए-अ’द्ल के तमाशागर रहे, कभी तरक़्क़ी-पसंद और ता’मीर-पसंद नाक़िद और क़ारी। सो ये उस्लूब भी किसी न किसी सत्ह पर अब तक साँस लिए जा रहा है। दोनों एक दूसरे से बर-सर-ए-पैकार हैं।

    ये अंदोह-नाक सिलसिला उस वक़्त तक जारी रहेगा जब तक ज़िंदगी से आँखें चार करने और ज़िंदगी से आँखें चुराने का तौर आ’म रहेगा। ज़िंदगी की बुनियादी सच्चाइयों की तरह कुछ फ़रेब भी वक़्त और मुक़ाम की क़ैद से मावरा होते हैं और उनके एक दूसरे से टकराने का अ’मल कभी ख़त्म नहीं होता। ऐसा न हो तो शायद उनकी पहचान भी बाक़ी न रह जाए। ज़िंदगी की कोख से जनम लेने वाली हर हक़ीक़त, हर जज़्बे, हर क़द्र, हर रवैये की हैसियत इज़ाफ़ी होती है और उनकी शनाख़्त क़ाइम करने का सब मो’तबर ज़रीआ’ वो आईना है जो किसी मुख़्तलिफ़, मुतज़ाद और मुतसादिम रवैये के इनइ’कास का वसीला है।

    मंटो की इन्फ़िरादियत और उसकी तरकीब में शामिल अ’नासिर की दरियाफ़्त भी हम उन ज़िदों के हवाले से करते हैं, जिनका मंज़र-नामा मंटो की अदबी रिवायत या उसके अ’हद की अदबी सूरत-ए-हाल से क़त’-ए-नज़र उसके मुआ’शरती माहौल ने तरतीब दिया था, जिसकी असास मंटो के हाल के इ’लावा उसके माज़ी पर भी क़ाइम है। जिसके दरीचों से गुज़र कर हम तक गुज़िश्ता ज़मानों की बिसात पर फैले हुए मुतअ’द्दिद और मुतनव्वे’ इंसानी तजरबात के उजाले और अँधेरे की रसाई होती है। जो ब-यक-वक़्त पुराना भी है और नया भी। चुनाँचे माज़ी और हाल को एक दूसरे से अलग करने वाली मनहनी लकीर को मिटाता है और कम-अज़-कम मंटो की हद तक क़िस्सा-ए-जदीद-ओ-क़दीम को दलील-ए-कम-नज़री ठहराता है।

    शायद इसीलिए मंटो की हैसियत एक ऐसे मसअले की है जो दाइम और मुस्तक़िल है। इस मसअले को अपने अपने तौर पर हल करने की कोशिश बहुत से लोग करते रहते हैं। इन लोगों में मंटो के नाशिर और क़ारी और नक़्क़ाद और मुहतसिब सभी शामिल हैं। किसी के नज़दीक इस मसअले का इक़्तिसादी पहलू सबसे अहम बन जाता है। कोई उसे केस हिस्ट्री के तौर पर पढ़ता है और नफ़्सियात-ए-जिन्सी की इस्तिलाहों में इसकी उलझनों का सिरा ढूँढता है। कुछ उसमें लज़्ज़त-अंदोज़ी के सामान तलाश करते हैं। कुछ अपने जमालियाती तक़ाज़ों की तकमील का। इनमें सबसे दिलचस्प अहवाल फ़िर्क़ा-ए-मलामतिया के उन साहिबान ज़ीशान का है जिनके लिए मंटो के आसीब का वजूद एक मुस्तक़िल परेशानी का सबब है कि इसके शरीर क़दमों की चाप गुल-ए-मंज़र की दीद के मुक़द्दस और मुतह्हर अ’मल में बार-बार माने’ आती है। ज़ाहिर है कि इस मुसीबत का इ’लाज अदब की इस्तिलाहों के बस का नहीं, चुनाँचे ये जुआ उठाने पर उनकी तबीअ’तें आमादा न हुईं और उन्होंने हाथों में संग-रेज़े संभाल लिए।

    ये बारिश-ए-संग ख़त्म इसलिए नहीं होती कि इस ज़िल्लत का तसलसुल भी हनूज़ क़ाइम है जिसने मंटो के हवास को थका डाला था। इसलिए हम ये सोचने में हक़-ब-जानिब होंगे कि मंटो का वजूद जिस वाक़िए’ से इ’बारत था, वो आज भी जारी है। उसकी मौत के साथ न तो जीने का वो उस्लूब ख़त्म हुआ है, न लिखने का। मेरे इस जुमले का मतलब वो हरगिज़ नहीं जो क़वाइद और सर्फ़-ओ-नहव के माहिरीन समझेंगे। अ’सकरी ने मंटो की ज़ात को ज़िंदगी के एक उस्लूब से ता’बीर किया था। मेरा ख़याल है कि मंटो उन मा’दूद चंद अदीबों में है जिनके यहाँ जीने और लिखने के मफ़ाहीम लुग़वी नहीं होते और मुरादन एक हो जाते हैं। चुनाँचे हम उसके बारे में कोई भी गुफ़्तगू सिर्फ़ उसकी आ’म इंसानी शख़्सियत के हवाले से नहीं कर सकते। उसका जीना और उसका लिखना एक दूसरे का तकमिला हैं और अपने बाहमी इदग़ाम से उस इकाई को जनम देते हैं जो एक मुसलसल मुतहर्रिक, नुुुमू-पज़ीर और वक़्त और मुक़ाम की सत्ह से बुलंद-तर, ग़ैर महसूर और ग़ैर-मुतय्यन वाक़िए’ की हैसियत इख़्तियार कर लेती है।

    इस सूरत-ए-हाल ने मंटो को एक अनोखी और अटल और बा’ज़ ए’तिबारात से एक ना-क़ाबिल-ए-तसख़ीर तवानाई का अलमिया बना दिया है। उसके हर पढ़ने वाले पर ये शर्त आयद होती है कि मंटो के बारे में किसी बा-मअ’नी गुफ़्तगू का इरादा करने से पहले वो इन तक़ाज़ों को समझे, जिन्हें उसके अफ़्सानों से अलग किसी भी फ़िक्री या अख़्लाक़ी या जज़्बाती सत्ह पर समझना मुम्किन नहीं है। बुनियादी तौर पर मंटो का चैलेंज एक अदब तख़्लीक़ करने वाले का चैलेंज है। इस चैलेंज की हक़ीक़त से इनकार करने वाला न मंटो की शनाख़्त का दा’वे-दार हो सकता है न ज़िंदगी के उन ला-ज़वाल मंतिक़ों का, जिनका शनास-नामा मंटो की तहरीरें हैं। अपनी इस हैसियत का अंदाज़ा ख़ुद मंटो को भी था।

    चुनाँचे उसने कभी भी किसी क़द्र, नज़रिए, अख़्लाक़ी या तहज़ीबी तसव्वुर या मुसल्लेहाना जोश और जज़्बे को अपनी बैसाखी बनाने की ज़रूरत महसूस नहीं की। वो इस रम्ज़ से बा-ख़बर था कि एक अदीब की हैसियत से जिन हुक़ूक़ की अदायगी का बार उसने सँभाल रखा है, उससे ज़ियादा की मुतहम्मिल एक फ़र्द की ज़िंदगी नहीं हो सकती। लेकिन ज़ाहिर है कि मंटो जैसे अदीब की तरह ज़िंदगी भी अपनी कुछ शर्तें रखती है और हर शख़्स से, ख़्वाह वो मंटो ही क्यों न हो, चंद तक़ाज़ों की तकमील का मुतालिबा करती है। चुनाँचे मंटो के नाख़ुन पर भी चंद गिरहों का क़र्ज़ मुसल्लत रहा।

    “ठंडा गोश्त का मुक़द्दमा क़रीब-क़रीब एक साल चला। मातहत अ’दालत ने मुझे तीन माह क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त और तीन सौ रुपये जुर्माने की सज़ा दी। सैशन में अपील की तो बरी हो गया। (इस हुक्म के ख़िलाफ़ सरकार ने हाईकोर्ट में अपील दायर कर रखी है। मुक़द्दमे की समाअ’त अभी तक नहीं हुई।

    इस दौरान में मुझ पर जो गुज़री, उसका कुछ हाल आपको मेरी किताब, ठंडा गोश्त, के दीबाचे बउनवान “ज़हमत-ए-महर-ए-दरख़्शाँ” में मिल सकता है। दिमाग़ की कुछ अ’जीब ही कैफ़ियत थी। समझ में नहीं आता था कि क्या करूँ। लिखना छोड़ दूँ या एहतिसाब से क़तअ’न बे-पर्वा हो कर क़लम-ज़नी करता रहूँ। सच पूछिए तो तबीअ’त इस क़दर खट्टी हो गई थी कि जी चाहता था कि कोई चीज़ अलाट हो जाएगी तो आराम से किसी को ने में बैठ कर चंद बरस क़लम और अदब से दूर रहूँ। दिमाग़ में ख़यालात पैदा हों तो उन्हें फांसी के तख़्ते पर लटका दूँ। अलाटमैंट मयस्सर न हो तो ब्लैक मार्किटिंग शुरू’ कर दूँ या ना-जायज़ तौर पर शराब कशीद करने लगूँ।

    आख़िर-उल-ज़िक्र काम मैंने इसलिए न किया कि मुझे इस बात का ख़दशा था कि सारी शराब मैं ख़ुद पी जाया करूँगा। ख़र्च ही ख़र्च होगा। आमदनी एक पैसे की भी न होगी। ब्लैक मार्किटिंग इसलिए न कर सका कि सरमाया पास न था। एक सिर्फ़ अलाटमैंट थी जो कार-आमद साबित हो सकती थी। आपको हैरत होगी मगर ये वाक़िआ’ है कि मैंने इसके लिए कोशिश की। पचास रुपये हुकूमत के खज़ाने में जमा’ करा के मैंने दरख़्वास्त दी कि मैं अमृतसर का मुहाजिर हूँ। बेकार हूँ इसलिए मुझे किसी प्रैस या सिनेमा में कोई हिस्सा अलाट फ़रमाया जाए।

    दरख़्वास्त के फ़ार्म छपे हुए थे। एक अ’जीब-ओ-ग़रीब क़िस्म का सवालिया था। हर सवाल इस क़िस्म का था जो इस अम्र का तालिब था कि दरख़्वास्त कुनिंदा पेट भर के झूट बोले। अब ये ऐ’ब मुझमें शुरू’ से रहा है कि झूट बोलने का सलीक़ा नहीं है। मैंने अलाटमैंट कराने वाले बड़े-बड़े घाघों से मश्वरा किया तो उन्होंने कहा कि तुम्हें झूट बोलना ही पड़ेगा। मैं राज़ी हो गया। लेकिन जब छपे हुए फ़ार्म की ख़ाली जगहें भरने लगा तो रुपये में सिर्फ़ दो-तीन आने झूट बोल सका। और जब इंटरव्यू हुआ तो मैंने साफ़-साफ़ कह दिया कि साहिब जो कुछ दरख़्वास्त में है, बिल्कुल झूट है। सच्ची बात ये है कि मैं हिन्दोस्तान में कोई बहुत बड़ी जायदाद छोड़ के नहीं आया सिर्फ़ एक मकान था और बस। आपसे मैं ख़ैरात के तौर पर कुछ नहीं मांगता।

    मैं ब-ज़ो’म-ए-ख़ुद बहुत बड़ा अफ़्साना-निगार था, लेकिन अब मुझे महसूस हुआ कि ये काम मेरे बस का नहीं। अल्लाह मियाँ मियाँ ऐम. असलम और भारती दत्त को सलामत रखे। मैं उनके हक़ में अपनी अफ़साना-निगारी से सुबुक-सर होता हूँ और सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि हुकूमत मुझे कोई ऐसी चीज़ अलाट कर दे जिसके लिए मुझे काम करना पड़े और उस काम की उजरत के तौर पर मुझे पाँच छः सौ रुपया माहवार मिल जाया करे।”

    सआ’दत हसन मंटो
    लाहौर। 11 जनवरी 1952
    (गंजे फ़रिश्ते)

    (2)
    मंटो ने ज़िंदगी का जो उस्लूब इख़्तियार किया था वो ख़तरनाक हद तक पेचीदा और पुर-फ़रेब है। उस ज़िंदगी की सच्चाइयों के गिर्द एक ऐसा ग़ुबार-आलूद हाला हमा-वक़्त हमें गर्दिश करता हुआ दिखाई देता है कि बाज़-औक़ात सच्चाईयाँ नज़रों से ओझल हो जाती हैं और हमारी बसारत सिर्फ़ उस हाले में उलझ कर रह जाती है। ये हाला ब-यक-वक़्त उसकी ज़िंदगी और उसकी तहरीरों दोनों के चहार अतराफ़ फैला हुआ है। मंटो से क़त’-ए-नज़र उसके अहबाब और सादा-लौह नाक़िदीन ने भी ख़ासी गर्द उड़ाई है। शायद मंटो की अपनी मर्ज़ी को भी इस मुआ’मले में ख़ासा दख़्ल हासिल था। दूसरों से मुख़्तलिफ़, अनोखा और ग़ैर-मुतवक़्क़े’ दिखाई देने की एक शरारत-आमेज़ आरज़ू-मंदी, एक मा’मूली सी बात को किसी नए, पुर-असरार ज़ाविए से इस तौर पर कहने की ख़्वाहिश कि सुनने वाला चौंक पड़े और हैरानी से दो-चार हो, ये रवैया बुनियादी तौर पर एक जमालियाती बुअ’द रखता है।

    ज़ाहिर है कि इंसानी तजरबात की बेशतर सूरतों ज़िंदगी के मा’मूलात ही का हिस्सा होती हैं। अक्सर लिखने वाले इन मा’मूलात को वक़ार अ’ता करने के लिए उनके बयान में वो सहल-उल-हुसूल और आज़मूदा नुस्ख़ा इस्ति’माल करते हैं, जिसे एक सत्ही क़िस्म की जज़्बातियत-ज़दगी से पैदा होने वाले बे-बिज़ाअ’त तफ़क्कुर या अख़्लाक़ी पोज़ का नाम दिया जा सकता है। हैरत इस बात पर होती है कि ख़ासे ता’लीम-याफ़्ता लोग भी इस अ’मल की सूक़ियत को पहचानने में नाकाम रह जाते हैं और सच्चाई पर फ़रेब को, फ़न पर तिल्ला-फ़रोशी को और इन्किशाफ़-ए-हक़ीक़त पर एक बे-रूह लफ्फ़ाज़ी को तरजीह देने के आ’मियाना रवैये का शिकार हो जाते हैं। ये सारी ख़राबी इसलिए पैदा होती है कि मसअले की फ़न्नी और जमालियाती जिहतों को नज़र-अंदाज कर के वो उसकी जज़्बाती, फ़िक्री और अख़्लाक़ी ता’बीरात के सहरा में हक़ाएक़ के ज़र-ओ-माल की जुस्तजू करते हैं। ऐसी सूरत में मंटो की अस्ल शख़्सियत का निगाह से ओझल हो जाना फ़ितरी है।

    अदब में इस रवैये की पसमांदगी को एक सरमाया-ए-इफ़्तिख़ार की हैसियत देने की ज़िम्मेदारी उन तरक़्क़ी-पसंदों पर आयद होती है जिन्होंने फ़न और शख़्सियत के रवाबित को समझने में ग़लती की और इनके दरमियानी फ़ासले की हक़ीक़त से भी बे-नियाज़ाना गुज़र गए। अस्ल में उनका मसअला अदब था ही नहीं। एक नुस्ख़ा-ए-कीमियाई की जुस्तजू-ए-मुदाम का कुछ अंदाज़ा आप इस वाक़िए’ से लगा सकते हैं कि बा’ज़ जुग़ादरी क़िस्म के तरक़्क़ी-पसंद जाफ़र ज़टल्ली के कुल्लियात में समाजी बग़ावत के चंद निशानात की दरियाफ़्त को अपनी तलाश का हासिल समझ बैठे, एक लम्हे के लिए भी ये सोचे बग़ैर कि अदब से गाली का काम लेना और गाली को अदब बनाना दो क़तअ’न मुख़्तलिफ़ बल्कि मुतज़ाद रवैये हैं। एक की असास जज़्बाती और ज़हनी इश्तिआ’ल पर है, दूसरे की अदब के जमालियाती और फ़न्नी अ’मल पर। यही वज्ह है कि मंटो को मर्दूद-ओ-मतऊ’न क़रार देने वालों में मौलवी और मुंसिफ़, सेहत-मंद ख़यालात की इशाअ’त को अदब का नसब-उल-ऐ’न समझने वाले मुदीर इन रसाइल और मम्लिकत ख़ुदा--दाद के समाजी मुसल्लेह और मे’मार, अ’ल्लामा ताजवर नजीबाबादी और तरक़्क़ी-पसंद नक़्क़ाद सब के सब एक साथ सफ़-आरा दिखाई देते हैं।

    रद्द-ए-अ’मल की कम-ओ-बेश एक ही सत्ह का इज़हार इन तमाम अस्हाब के यहाँ हुआ है। इनमें बेशतर अदब की अबजद से भी ना-वाक़िफ़ थे और जिन्हें अदब-फ़हमी का दा’वा था, इन तक ये इत्तिला पहुँच नहीं सकी थी कि जदीद अदब के बुनियादी तसव्वुरात में से एक तसव्वुर ये मा’रूफ़ और मानूस हक़ीक़त भी है कि कोई भी इंसानी तजरबा, जो एक जमालियाती जिहत से हम-रिश्तगी का इम्कान यकसर खो न बैठा हो, एक अदीब का तजरबा बन सकता है। कोई भी ऐसा तजरबा फ़न के इ’लाक़ों से बाहर नहीं है जो एक फ़न्नी अ’मल के ज़रीए’ एक वसीअ’-तर जमालियाती हैअत में मुंतक़िल होने की क़ुव्वत का हामिल हो। अदब में ‘फ़ह्हाशी’ भी इसी तरह अपना वजूद रखती है जिस तरह फ़ह्हाशी से यकसर पाक और मुनज़्ज़ह अदब। अपने मो’तरिज़ीना की सादा ज़हनी का मंटो को ब-ख़ूबी इ’ल्म था। चुनाँचे अदालतों में अपने बयानात सफ़ाई के इ’लावा मंटो ने अपने रवय्यों की वज़ाहत-ओ-ता’बीर के सिलसिले में जो मज़ामीन लिखे हैं, उनमें उसका अंदाज़ कम-ओ-बेश वही है जो ग़बी तलबा के हुजूम में एक साबिर और नर्म ख़ू मुअ’ल्लिम का होता है।

    उसकी एहतिसाब-गज़ीदा कहानियों पर उसके मो’तरिज़ीना का इश्तिआ’ल बे-सबब नहीं था, ख़ुद मंटो ने इरादन उसका जवाज़ फ़राहम किया था। मेरा ख़याल है कि इन हल्क़ों की जानिब से अगर रद्द-ए-अ’मल का इज़हार इश्तिआ’ल की इस सत्ह पर न हुआ होता तो मंटो को मायूसी हुई होती। जिस लिखने वाले के नज़दीक अपने क़ारईन को मुश्तइ’ल करने का अ’मल एक ना-गुज़ीर जमालियाती और तख़्लीक़ी रद्द-ए-अ’मल को दा’वत देने की ग़ायत से ममलू हो, उसके अ’मल की कामयाबी का इन्हिसार ही इस हक़ीक़त पर है कि उसके क़ारईन मुतवक़्क़े’ असर क़ुबूल करने से मा’ज़ूर न रह जाएँ। इस सिलसिले में ये मफ़रूज़ा बहुत मुज़हिक है कि बदी या लज़्ज़त-अंदोज़ी का अ’मल फ़न्नी तजरबे का हिस्सा बनने के बा’द अपनी अस्लियत से सर-ता-सर ला-तअ’ल्लुक़ हो जाए और गुनाह एक कार-ए-ख़ैर की शक्ल इख़्तियार कर ले। इस क़िस्म की क़ल्ब-ए-माहियत तख़्लीक़ी तजरबे की सत्ह पर बई’द-अज़-क़यास तो नहीं है, लेकिन उसे किसी हतमी उसूल की हैसियत देना भी ग़लत है।

    अब रहा उस क़ारी का मसअला जो फ़िक्शन के हर तजरबे को अपने अ’मल की बिसात पर अज़-सर-ए-नौ ख़ल्क़ करने की कोशिश करता है, और हक़ीक़त के आ’म तसव्वुर को उसी के तख़्लीक़ी तसव्वुर से मुमय्यज़ करने की इस्तिदाद से बे-बहरा है तो इसमें क़ुसूर अफ़्साना-निगार से ज़ियादा उसकी अपनी ज़हनी और तहज़ीबी तरबियत और इदराक का है। इंसानी मुआ’शरे में ऐसे जरी और मुहिम-पसंद अफ़राद भी मिल जाएँगे जो दीनी और तिब्बी कुतुब के सफ़्हात पर भी अपने जिन्सी जज़्बात को तवानाई बख़्शने वाले अ’नासिर तलाश कर लेंगे। अब से बहुत आगे 1833 में नूह वेबस्टर नामी एक बुज़ुर्ग ने इंजील मुक़द्दस की ज़बान और बा’ज़ इस्तिलाहात में तरमीम-ओ-तंसीख़ की ज़रूरत महसूस की थी और अपने तईं “फ़ुहश अल्फ़ाज़” उससे ख़ारिज कर दिए थे। इस्लाह-पसंदी के इस मौलवियाना जोश की मुबालग़ा-आमेज़ सूरत ये वाक़िआ’ है कि गुज़िश्ता सदी के एक ना-मा’लूम मुबस्सिर ने इंजील पर तब्सिरा करते हुए एक जरीदे में इस राय का इज़हार किया कि इस मुक़द्दस किताब की ज़बान “इंतिहाई फ़ुहश है और इस लाइक़ नहीं कि इसे किसी मुहज़्ज़ब मजमे’ में दुहराया जा सके।”

    जब एक ऐसी किताब के सिलसिले में, जिसे हमारी ज़मीन पर बसने वाले लखोखा अफ़राद इंसानी मुआ’शरे की फ़लाह और नजात का वाहिद ज़रीआ’ क़रार देते हैं, इस नौ’ के रद्द-ए-अ’मल का इज़हार मुम्किन है तो हमें अ’ल्लामा ताजवर नजीबाबादी के इन अल्फ़ाज़ पर हैरत न होनी चाहिए कि, “ठंडा गोश्त किसी मस्जिद में या किसी मजलिस में जमाअ’ती हैसियत में सुनना पसंद नहीं किया जा सकता। अगर कोई पढ़े तो अपना सर सलामत लेकर न जा सके। चालीस साला अदबी ज़िंदगी में ऐसा ज़लील और गंदा मज़्मून मेरी नज़र से नहीं गुज़रा है।”

    ये बात तो मंटो के हाशिया-ए-ख़याल में भी न आई होगी कि उसका कोई अफ़साना जुमा की नमाज़ का ख़ुत्बा भी बन सकता है। फिर अगर जमाअ’ती हैसियत से उसे अपनी बात के सुने जाने का गुमान भी होता तो उसने एक अफ़्साना-निगार के बजाए उन तिल्ला-फ़रोशों का उस्लूब इख़्तियार किया होता जो किसी आ’म शाहराह के किनारे अपनी दुकानें सजाते हैं या तख़्लीक़ी फ़नकार के बजाए किसी जादू-बयान ख़तीब के लहजे में कलाम करते हैं। उसने अपने क़ारी से वो रिश्ता क़ाइम करने की सई’ की थी जो एक फ़र्द का दूसरे फ़र्द से होता है। जो अंजुमन-आराई के बजाए अपने ख़ल्वत-कदे में एक राहिब की तरह अपने तजरबात को एक नई सच्चाई का रूप देता है और उसे मा’मूलात की सत्ह से उठाकर एक इन्किशाफ़ में मुंतक़िल कर देता है। मंटो ने इस सच्चाई के तहफ़्फ़ुज़ की ख़ातिर ब-क़ौल अ’सकरी, अनानियत का एक हिसार अपनी ज़ात के गिर्द खींचा कि यही सच्चाई उसकी इन्फ़िरादियत-ओ-मिल्कियत थी।

    मगर इस सच्चाई के हुसूल के लिए, ज़िंदगी की आ’म और बैन सत्ह पर उसने उन तमाम अफ़राद, अश्या और मज़ाहिर से रब्त उस्तुवार किया जिनके इजतिमा’ से इंसानी तजरबात की तमाशागाह तरतीब पाती है और उन तजरबात की बू-क़ल्मूनी, उनकी बाहमी आवेज़िश, और तसादुम के नतीजे में नुमू-पज़ीर होने वाली चिंगारियों का इदराक होता है। सच्चाई के हुसूल की इस जुस्तजू में उसकी ख़ुद-पसंदी भी माने’ न हो सकी क्योंकि ब-हैसियत-ए-अफ़्साना-निगार मंटो इस रम्ज़ से आगाह था कि सच्चाई की दरियाफ़्त और उस तक रसाई के लिए तजरबे की किसी एक मख़सूस और मुअ’य्यना सत्ह की पाबंदी, किसी एक जिहत की शनाख़्त, किसी एक दायरे में गर्दिश काफ़ी नहीं हो सकती। उस सच्चाई को पाने का इमकान सबसे ज़ियादा उन लोगों के दरमियान हो सकता था जो मुसल्लमात की पर्वा किए बग़ैर, आ’म समाजी और अख़्लाक़ी इमतिनाआत की क़ैद से आज़ाद ज़िंदगी को उसके तमाम-तर शोर-शराबे और उसकी सारी हलाकत-आफ़रीनियों के साथ क़ुबूल करते हैं।

    नेकी की हक़ीक़त को समझने के लिए बदी का और बदी के रम्ज़ से शनासाई के लिए उसकी तह में मख़फ़ी सदाक़तों का इ’रफ़ान ज़रूरी है। इसीलिए मंटो ने किसी बंधे-टिके उसूल या नज़रिए या क़द्र या समाजी फ़लसफ़े के बजाए ज़िंदगी को उस पेचीदा और हज़ार-शेवा मंतिक़ के ज़रीए’ समझने की कोशिश की जिसका मवाद इंसान का पूरा निज़ाम-ए-एहसास फ़राहम करता है। उसके तजरबे महज़ अ’क़्ली तजरबे नहीं थे, उन तजरबों की आमाज-गाह सिर्फ़ रूह भी नहीं थी। चुनाँचे मंटो ने न तो किताबों को अपना रहनुमा बनाया, न किसी ख़ारिजी तसव्वुर को। उसे सरोकार इंसानों से था, तजरीदात से नहीं। और जो क़ुव्वतें जीती-जागती ज़ात को एक तजरीद की शक्ल देने में सबसे ज़ियादा कारगर होती हैं वो वही हैं जिन्हें इंसानी मुआ’शरा अख़्लाक़ी तहज़ीबी और समाजी अक़दार का नाम देता है। एक ए’तिबार से देखा जाए तो ये रवैया ख़्वाह कितना ही नेक-अंदेश क्यों न हो, इसकी असास फ़र्द-कुशी बल्कि इंसान-कुशी के एक ब-ज़ाहिर बे-ज़रर उसूल पर क़ाइम है।

    बादियुन-नज़र में ये बात अ’जीब मा’लूम होती है मगर वाक़िआ’ यही है कि मंटो के यहाँ अपने “बुरे से बुरे” किरदार के लिए नफ़रत या कराहत के तअस्सुर का शाइबा तक नहीं। वो क़ातिलों, ज़ानियों, शराबियों और ठुकराए हुए लोगों का ज़िक्र भी इस तरह करता है गोया उनके आ’माल जिन्सी या जज़्बाती या जिस्मानी तशद्दुद के उं’सुर से यकसर आ’री हैं। गोया कि हर अ’मल एक इंसानी आ’म अ’मल की हैसियत से ज़िंदगी की किसी न किसी हक़ीक़त का इन्किशाफ़ करता है और बस। मंटो ने अपनी हद यहीं क़ाइम कर ली थी।

    “मैं तहज़ीब-ओ-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़ा पहनाने की कोशिश भी नहीं करता इसलिए कि ये मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह-क़लम कहते हैं लेकिन मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ैद चाक इस्ति’माल करता हूँ कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और भी ज़ियादा नुमायाँ हो जाए।”

    - मंटो (अदब जदीद)

    (3)
    मंटो ने अपनी कहानियों को जज़्बात की बेजा मुदाख़िलत से जिस तरह महफ़ूज़ रखा है वो बजा-ए-ख़ुद एक गैर-मा’मूली वाक़िआ’ है। जज़्बाती होना शर्म की बात नहीं है कि ये वस्फ़ भी इंसान के मिज़ाज और तबीअ’त का एक फ़ितरी जुज़ है। लेकिन जब कोई अदब तख़्लीक़ करने वाला जज़्बात की लगाम पर अपनी गिरफ़्त मज़बूत रखने की सलाहियत से महरूम हो जाता है तो रुस्वाई जज़्बात की भी होती है और उसके तख़्लीक़ी किरदार की भी। ऐसी सूरत में वो फ़नकार नहीं रह जाता और इंसानी तजरबात के इदराक की एक ऐसी सत्ह पर आन गिरता है जो इन्फ़िरादी बसीरत की रोशनी से यकसर महरूम हो जाती है और अपने आ’मियाना-पन के इख़्फ़ा की ख़ातिर जज़्बात का तिलिस्म बांधती है। इस रवैये को हम एक नौ’ के जज़्बाती इब्तिज़ाल से ता’बीर कर सकते हैं। मंटो ने जिन आतिश-फ़िशाँ तहज़ीबी, समाजी और इन्फ़िरादी आसार के सियाक़-ओ-सबाक में अपने तजरबात का इज़हार किया है, उसके पेश नज़रिया कोई अनहोनी बात न होती अगर वो अपने बा’ज़ अख़्लाक़ गिरफ़्ता मुआ’सिरीन की तरह ख़तीबाना तुमतराक़ और मुसल्लेहाना ख़रोश का हिसार अपनी ज़ात के गिर्द खींच लेता।

    इस तर्ज़-ए-फ़िक्र को आप “अदबी फ़ह्हाशी” का नाम न दें जब भी इस हक़ीक़त से इनकार नहीं कर सकते, अपनी ग़ायत के ए’तिबार से “मुफ़ीद और सेहत-मंद” होने के बावुजूद ये तर्ज़-ए-अ’मल तख़्लीक़ी और फ़िक्री दोनों सत्हों पर मुब्तज़िल है। आ’म वक़ाए’ और जज़्बात से बे-हिजाबाना रब्त और उनमें दाख़िली नज़्म-ओ-ज़ब्त से कुल्लियतन आ’री आलूदगी भी एक तरह की बे-तौफ़ीक़ी और फूहड़पन है, ख़ास तौर से फ़िक्शन लिखने वाले के लिए। ये अंदाज़-ए-नज़र नेक मक़ासिद के इज़हार को भी मस्ख़रा-पन बना देता है। इसके वफ़ूर का लाज़िमी नतीजा ये होता है कि लिखने वाला इंसानी फ़िक्र और जिबिल्लत के तबई’ तक़ाज़ों या इंसान के आ’म जिस्मानी तफ़ाउ’ल में हर लम्हा क़ाइम और मौजूद रिश्तों के एहसास से ग़ाफ़िल हो कर ख़ाली-खोली तसव्वुरात की सत्ह पर उसके अ’मल और इरादों की ता’बीरें ढूँढने लगता है। अपने महबूब किरदारों की ज़बान से वो कुछ कहलवाने में मगन हो जाता है, जो लफ़्ज़-लफ़्ज़ उसके बरहना शऊ’र की तख़्ती पर लिखा हुआ है।

    बिल-आख़िर वो उस पुर-असरार जौहर से हाथ धो बैठता है जिसे हम फ़नकार की दाख़िली तवानाई और उसकी इन्फ़िरादी क़ुव्वत से ता’बीर कर सकते हैं, या’नी ये कि वो इंसानी सरिश्त से मुतअ’ल्लिक़ बासी ख़बरों का ढिंडोरची बन जाता है और ख़ुद उसकी ज़ात उसके क़ारी के लिए किसी नए रम्ज़, बसीरत के किसी अनदेखे नक़्श, आगही की किसी ग़ैर-मुतवक़्क़े’ दरियाफ़्त का निशान नहीं रह जाती।

    मंटो ने इस मसअले को भी इज़हार की उसी सत्ह पर हल करने की कोशिश की है जिसे हम एक अदीब या फ़नकार की बुनियादी सत्ह कह सकते हैं, या’नी कि इज़हार की तख़्लीक़ी और फ़न्नी सत्ह। यहाँ भी मंटो की तख़्लीक़ी फ़िक्र और उसके आ’म अफ़आ’ल और ज़िंदगी के आ’म उस्लूब में हमें ज़बरदस्त हम-आहंगी का एहसास होता है। शो’बदा-बाज़ों और बाज़ीगरों से मंटो की दिलचस्पी किसी आ’म इंसान की दिलचस्पी नहीं थी। ये एक तरह की तख़्लीक़ी हम-आहंगी थी या दूसरे के आईना-ए-ज़ात में अपनी पहचान और ब-हैसियत-ए-फ़नकार अपने मंसब की शनाख़्त का अ’मल। उसे आ’म ज़िंदगी में अपने दोस्तों को और तहरीरों के ज़रीए’ अपने क़ारईन को चौंकाने की जो तलब परेशान रखती थी, वो एक फ़नकार की तलब थी। सच्चाई अगर सिर्फ़ रोज़मर्रा की सत्ह पर मुनकशिफ़ करे तो ज़िंदगी के मा’मूलात और आ’म मुक़द्दरात का हिस्सा बन कर अपनी रही-सही चमक भी खो बैठती है।

    चुनाँचे मंटो उसके इदराक और इज़हार में ऐसी कोई न कोई जिहत हमेशा ढूँढ निकालता था जो उसे ना-मानूस और नौ-साख़्ता बना दे। उसकी बेशतर कहानियों के इख़्तिताम का लम्हा मानूस में उसी ना-मानूस उं’सुर तक एक ख़ल्लाक़ाना जस्त की कामरानी का लम्हा है। उसके वो तमाम क़ारईन, नाक़िदीन और मोहतसिबीन जो उस लम्हे के कश्फ़ पर झुँझला उठते हैं और इस कश्फ़ की जमालियाती क़द्र का एहसास किए बग़ैर इसके अख़्लाक़ी मुज़्मरात में उलझ जाते हैं, फ़िक्री ए’तिबार से फ़लाकत-ज़दा और तख़्लीक़ी ए’तिबार से बंजर और बे-रूह लोग हैं। मंटो अपनी इस क़ुव्वत-ए-कश्फ़ के साथ-साथ ऐसे तमाम लोगों की बुनियादी कमज़ोरी और महरूमी से ब-ख़ूबी आगाह था। चुनाँचे अपनी उन कहानियों के मुआ’मले में भी जिन पर क़ानूनी एहतिसाब का हल्क़ा तंग था, न तो उसने मुआ’शरे के दबाव को क़ुबूल किया न लौरेंस की तरह अपने नाशिरीन की मस्लेहतों के पेश-ए-नज़र किसी मा’मूली तरमीम-ओ-तब्दीली पर भी रज़ा-मंद हुआ।

    लौरेंस के बर-अ’क्स मंटो एक इंतिहाई ख़ुद-सर और ज़िद्दी तबीअ’त का मालिक था और ये समझता था कि अगर उसके अल्फ़ाज़ या इज़हार के बा’ज़ पैराए क़ारईन के एक हल्क़े की परेशानी का सबब बनते हैं तो ये क़ुसूर ख़ुद उन क़ारईन का है। सच्चाई के इज़हार से परेशानी-ए-ख़ातिर में मुब्तला होने वाले अफ़राद अदब के मुआ’मले में बे-वक़ूफ़ ही नहीं अख़्लाक़ी सत्ह पर भी सेहत-मंद नहीं होते। मंटो की कहानियाँ उनके हवास के लिए एक ताज़ियाने का और बे-रूह ईक़ानात के लिए एक सज़ा का हुक्म रखती हैं। लेकिन अदब के ग़बी क़ारी या तख़्लीक़ी तौर पर नकबत-ज़दा शख़्स की एक पहचान ये भी होती है कि वो अपनी मा’ज़ूरियों को छिपाने के लिए ज़िम्नी बल्कि ग़ैर-मुतअ’ल्लिक़ मसाइल पर गुफ़्तगू के हीले तलाश कर लेता है। मंटो के मो’तरिज़ीना को इस मुआ’मले में ये सहूलत भी मयस्सर आई कि मंटो ने अपने उस्लूब पर किसी ख़ारिजी आराइश का ग़िलाफ़ चढ़ाने की कभी भी कोशिश नहीं की। उसकी कहानियों में हुस्न के तमाम अ’नासिर ख़ुद उन कहानियों के बातिन से नुमूदार हुए हैं। जज़्बात के ख़ौल, मुबालग़े की चाशनी, ख़ूबसूरत और अनोखी अ’लामतों और रंगीन, सेहर-तराज़ अल्फ़ाज़ के जादू से मंटो की कहानियाँ यकसर ख़ाली हैं।

    वो किसी बैरूनी सहारे के बग़ैर अपने तजरबात का इन्किशाफ़ इस आहिस्तगी के साथ करता है कि ये आहिस्ता-कारी ही उसका नक़्श-ए-इम्तियाज़ बन जाती है। लेकिन यही आहिस्ता-कारी मंटो का हिजाब है। तख़्लीक़ी इज़हार का ये रास्ता दुश्वार-गुज़ार भी है और दाख़िली ए’तिबार से पेचीदा भी। उसमें वो ईमाइयत है जो ग़ज़ल के अच्छे शे’र में पाई जाती है।, ब-यक-वक़्त मअ’नी की कई सत्हों से हम-किनार। हक़ीक़त सिर्फ़ वो नहीं जो दिखाई देती है बल्कि अल्फ़ाज़ के पीछे भी तजरबे के कई अबआ’द रौशन हैं। मंटो नस्र फ़्लाबेयर की तरह शफ़्फ़ाफ़ और हशव-ओ-ज़वाइद से यकसर पाक न सही जब भी उर्दू के बेशतर जलील-उल-क़द्र अफ़साना-निगारों के लिए एक अच्छा-ख़ासा चैलेंज ज़रूर है। उसमें एहसास की वो तहारत, सच्चाई और बरजस्तगी मिलती है जो तजरबे के सच्चे, बराह-ए-रास्त और फ़ितरी इदराक से पैदा होती है। मंटो अपने तजरबात का बयान इस तरह करता है गोया कि उसके इज़हार का साँचा भी दर-अस्ल उस तअस्सुर ही का हिस्सा हो जो एक वारदात के सूरत उस तक पहुँचा है।

    मोज़ील जैसी कहानी एक नशिस्त में मंटो ही लिख सकता था। और ये सूरत उसकी मुतअ’द्दिद कहानियों के साथ है कि जुज़इयात और ज़मानी-ओ-मकानी हवालों की हम-रकाबी के बावुजूद उनका रद्द-ए-अ’मल क़ारी पर एक इतमाम-याफ़्ता नज़्म या एक गठे हुए शे’र की तरह होता है, जिसमें न ज़बान का वो इब्तिज़ाल है न जज़्बे का जो दाख़िली तंज़ीम के इंतिशार का नतीजा होता है। मंटो ने कभी किसी ऐसे जज़्बे की नुमाइश न की जो उसके तजरबे की शाख़ से एक कोंपल की तरह बग़ैर किसी तसना और ग़ौग़ा के अपने आप ही नुमूदार न हुआ हो। इस बात से उसे क़तअ’न सरोकार न था कि किसी मख़सूस तजरबे या वारदात की तरफ़ भले-मानुसों का जज़्बाती रवैया क्या होता है, या क्या होना चाहिए और अगर उसकी कोई क़तई’ सूरत मुतय्यन की जा सकती है तो मार बांध कर उसे इख़्तियार करने की जद्द-ओ-जहद की जाए। कोई भी जज़्बा अगर आपकी फ़ितरत के ख़म-ओ-पेच से ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं उभरता तो उसका इज़हार एक मा’मूली दर्जे की अदबी जा’ल-साज़ी के सिवा और कुछ भी नहीं।

    मंटो करतब-बाज़ था मगर झूट बोलना या तसन्नोआत का समाँ बांधना उसके लिए मुम्किन न था। चुनाँचे उसके मो’तरिज़ीना का रद्द-ए-अ’मल भी बिल-उ’मूम एक कड़वे सच को बर्दाश्त न कर सकने का नतीजा है। ज़ाहिर है कि हर सच्चाई दियानत की ही कोख से जनम लेती है। और दियानत-दारी की एक शर्त ये भी है कि आदमी मफ़रूज़ा और मुस्तआ’र या कम-अज़-कम मुबालग़ा-आमेज़ जज़्बात की सत्ह से ख़ुद को दूर रखे। जज़्बाती होने की पहली सज़ा जो किसी अदीब को मिलती है, वो ये है कि अपनी रही-सही ज़हानत से भी वो दस्त-कश हो जाता है। और मंटो का मुआ’मला ये था कि वो अपनी ज़हानत के ख़ौल का पाबंद न सही, जब भी दर-अस्ल वो अपनी ज़हानत ही के वसीले से अपने एहसासात के हक़ीक़ी और वाक़ई’ उस्लूब की पहचान क़ाइम करता था। मंटो के ज़हनी और तख़्लीक़ी रवय्यों में जो ख़ौफ़-ज़दा कर देने वाली दियानत-दारी नज़र आती है और जिसने मंटो की ज़ात पर झूट से मुफ़ाहमत के तमाम दरवाज़े बंद कर दिए थे, वो जज़्बाती वफ़ूर से पैदा-शुदा इब्तिज़ाल को रद्द करने के सबब ही उसके किरदार का जुज़ बन सकी थी।

    “हर शहर में बदर-रौएँ और मोरियाँ मौजूद हैं जो शहर की गंदगी बाहर ले जाती हैं। हम अगर अपने मर्मरीं ग़ुस्ल-ख़ानों की बात कर सकते हैं, अगर हम साबुन और लेवेन्डर का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन मोरियों बदर-रौओं का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जो हमारे बदन का मैल पीती हैं।”

    - मंटो
    (सफ़ेद झूट)
    काली शलवार के बयान में

    (4)
    मंटो ने अफ़्साना-निगार और जिन्सी मसाइल के उ’नवान से गुफ़्तगू में ये कहा था कि “नीम के पत्ते कड़वे सही मगर ख़ून ज़रूर साफ़ करते हैं।” इसी गुफ़्तगू में उसके ये अल्फ़ाज़ भी शामिल थे कि “हम मरज़ बताते हैं लेकिन दवा-ख़ानों के मुहतमिम नहीं हैं।” इससे क़त’-ए-नज़र कि जिन्सी मसाइल पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र की एक जिहत एक ग़ैर-तबई’ बल्कि रुहानी और मज़हबी मिंतक़े से बिल-आख़िर जा मिलती है, मंटो ज़िंदगी से वाबस्ता तमाम अफ़आ’ल और एहसासात हत्ता कि अपने इज़हार और तजरबात के इदराक की सत्ह पर भी एक गहरे अख़्लाक़ी रवैये का पाबंद नज़र आता है। उसकी सच्चाई और साफ़-गोई भी उसकी इसी अख़्लाक़ियात का हिस्सा है। मुम्ताज़ शीरीं ने लिखा है कि “मंटो का रवैया अगर सनकी नहीं तो एक हद तक सादी ज़रूर है। ज़िंदगी और इंसान को और इंसान के वहशियाना हैजानी जज़्बात उर्यां करने में और अपनी तहरीरों में धचका पहुँचाने में मंटो का रवैया मोपासाँ की तरह तक़रीबन सादी है।” ये सादियत मंटो के यहाँ अगरचे बुनियादी तौर पर एक जमालियाती असास रखती है मगर इसके मफ़हूम का तअ’य्युन हम मंटो की अख़्लाक़ियात के सियाक़ को जाने बग़ैर नहीं कर सकते।

    उसकी अख़्लाक़ियात का तार-ओ-पूद ब-यक-वक़्त इंसान के तईं एक मतीन, मलाल-आमेज़ तफ़क्कुर, एक गहरी दर्द-मंदी और इंसानी तजरबात के तईं एक मुनज़्ज़ह और शफ़्फ़ाफ़ मा’रूज़ियत से तैयार हुआ है। वो अपने किरदारों के अलम और उनके दहशत भरे तजरबों में शरीक भी है और उनसे अलग भी। वो इंसान के वहशियाना हैजानात, उसकी ग़ारत-गरी, ईज़ा-पसंदी और शहवानियत की पहचान भी रखता है और उन नर्म-आसार जज़्बात की भी जिन पर दुरुश्त और संगीन वाक़िआ’त का ख़ौल चढ़ा हुआ है।

    अपने किरदारों के बातिन तक मंटो की रसाई महज़ ज़हन के वसीले से नहीं होती वर्ना उसके अफ़साने केस हिस्ट्रीज़ बन जाते और इस तरह सिर्फ़ एक समाजियाती मुताले’ की मौज़ू की हैसियत इख़्तियार कर लेते। लेकिन एक तो ये मंटो समाजी हक़ीक़त और फ़न्नी हक़ीक़त के इम्तियाज़ का गहरा शऊ’र रखता था और ये जानता था कि ख़ालिस हक़ीक़त इंसानी नफ़सियात या उसके मुआ’शरती माहौल के मुताले’ में चाहे जितनी ही क़द्र-ओ-क़ीमत की हामिल और कार-आमद क्यों न हो, अदब में उसका गुज़र थोड़े बहुत खोट के बग़ैर मुम्किन नहीं। चुनाँचे अपने एक मज़्मून (कसौटी) में उसने कहा था कि,

    “अदब ज़ेवर है और जिस तरह ख़ूबसूरत ज़ेवर ख़ालिस सोना नहीं होते, उसी तरह ख़ूबसूरत अदब-पारे भी ख़ालिस हक़ीक़त नहीं होते। उनको सोने की तरह पत्थरों पर घिस-घिसा कर परखना बहुत बड़ी बे-ज़ौक़ी है।”

    दूसरे ये कि मंटो का बुनियादी मसअला एक अदीब का मसअला था और वो इस रम्ज़ से वाक़िफ़ था कि अदीब की ज़िम्मेदारियों और मनासिब की नौइ’यत समाजी उ’लूम के माहिरीन के मुक़ाबले में मुख़्तलिफ़ ही नहीं होती, निस्बतन ज़ियादा पेचीदा और नाज़ुक भी होती है। “अदब या तो अदब है वर्ना बहुत बड़ी बे-अदबी है। ज़ेवर तो ज़ेवर है वर्ना एक बहुत ही बद-नुमा शय है। अदब और ग़ैर-अदब, ज़ेवर और ग़ैर-ज़ेवर में कोई दरमियानी इ’लाक़ा नहीं।” चुनाँचे जैसा कि ऊपर अ’र्ज़ किया गया, मंटो अपने किरदारों के बातिन तक अपने तमाम-तर हवास की मदद से पहुँचता था और उन किरदारों की पहचान के लिए भी उसने उनके ख़ारिजी या ज़हनी अ’मल के बजाए उनके मजमूई’ निज़ाम-ए-एहसास की सत्ह का इंतिख़ाब किया था। इस तरह किरदार और उनसे वाबस्ता वाक़िआ’त अपनी तमाम जिहतों, अपने तज़ादात, अपनी अंदरूनी कश्मकश, और अपनी नफ़सी और आसाबी पेचीदगियों के साथ उसके हवास पर वारिद हुए थे।

    मंटो के यहाँ इंसान, इंसानियत और अफ़राद के बातिन में छिपी और दबी हुई अख़्लाक़ी तहारत के तईं जो वाबस्तगी दिखाई देती है वो इस अम्र की शाहिद है कि मंटो का रवैया अपने किरदारों के मुआ’मले में ईजाबी था और वो उन्हें पहले से कोई शर्त क़ाइम किए बग़ैर उनकी कुल्लियत के साथ उन्हें क़ुबूल करता था। जभी तो मंटो के किरदार उसकी कहानियों में डरे-सहमे और सिमटे हुए दिखाई नहीं देते और आज़ादाना अपना तआ’रुफ़ कराते हैं। हिजाबात से ऐसी आज़ादी मंटो की तख़्लीक़ी शख़्सियत का सबसे नुमायाँ वस्फ़ है। अ’सकरी ने ग़लत नहीं कहा कि,

    “जो बातें और अदीब कहने की हिम्मत न कर सकते थे, वो मंटो बे-धड़क कह डालता था लेकिन इससे भी बड़ी चीज़ ये है कि मंटो की क़िस्म का फ़नकार हम जैसे लोगों के लिए एक ढाल का काम देता है। ज़िंदगी की जिन ज़ुहरा-गुदाज़ हक़ीक़तों का शऊ’र हासिल किए बग़ैर हम ठीक तरह ज़िंदा नहीं रह सकते, उन्हें हमारे बजाए इस क़िस्म का फ़नकार महसूस कर के हमें बताता है। या’नी वो हमारी तरफ़ से एहसास की अज़ीयत उठाता है। अगर ऐसा फ़नकार हमारे दरमियान न रहे तो फिर ये ज़िम्मेदारी अपनी-अपनी बिसात भर हम सबको क़ुबूल करनी पड़ती है। मंटो के बा’द ये बोझ हमारे काँधों पर आ पड़ा है। हमें शऊ’र की बलाओं से महफ़ूज़ रखने वाली दीवार हमारे सामने से हट गई है।”

    उर्दू अफ़साने का अलमिया ये है कि मंटो के मुआ’सिरीन में भी किसी ने एहसास की इस वुसअ’त और ज़हन की इस कुशादगी के साथ इस बोझ को उठाने में उसका साथ नहीं दिया था और उसके बा’द तो ख़ैर लिखने वालों का रवैया ही बड़ी हद तक तब्दील हो गया और नए मंशूर तरतीब दिए जाने लगे। फ़नकार की अनानियत और इन्फ़िरादी तजरबे से वफ़ादारी का चर्चा तो बहुत हुआ मगर किसी दूसरे अफ़्साना निगार ने मंटो की तरह अपनी ज़ात से बाहर दूसरे किरदारों की अनानियत और तजरबे की इन्फ़िरादियत का इस दर्जा एहतिराम नहीं किया। यही वज्ह है कि तन-ए-तन्हा मंटो ने उर्दू अफ़साने को जितने ज़िंदा और मुतहर्रिक किरदारों से मुतआ’रिफ़ कराया है, शायद उर्दू के तमाम अफ़्साना-निगार मिलकर भी ये बार न उठा सकें।

    इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं कि मंटो के इ’लावा किसी और ने अच्छे अफ़साने नहीं लिखे या ये कि मंटो ने बुरे, बल्कि बहुत बुरे और फुसफुसे अफ़साने नहीं लिखे। मैं तो सिर्फ़ ये कहना चाहता हूँ कि मंटो ने चूँकि सिर्फ़ अपने शऊ’र या किसी मख़सूस-ओ-मुई’न क़द्र को अपना रहनुमा नहीं बनाया था, इसलिए अपने किरदारों का अ’क्स उतारते हुए भी उसने उनकी ज़ात के हिस्से-बख़रे नहीं किए। वो “दवा-ख़ाने का मुहतमिम” बनने के ख़ब्त में मुब्तला न सही, जब भी उसकी उँगलियाँ अपने मुआ’शरे की नब्ज़ पर थीं और उसका वजूद एक मिक़्यास की मिसाल था

    उसने वा’ज़-ओ-पंद, तक़रीर और इज़हार-ए-ज़ोहद को अपना शेवा बनाने से गुरेज़ भी शायद इसलिए किया कि वो अख़्लाक़ का एक गहरा और बसीत तसव्वुर रखता था। उसे अपने आपको गंदगी का ग़व्वास कहने में शर्म नहीं आई, सिर्फ़ इसलिए कि अपनी जुस्तजू का मक़सद उसकी ज़ात पर रौशन था और एक मौक़े’ पर अ’दालत में अपना बयान देते हुए उसने कहा था कि वो (अदब) जो आप अपनी ग़ायत है और जिसका अ’मल सिर्फ़ एक सत्ही निशात-अंदोज़ी और जिस्मानी तलज़्ज़ुज़ के एहसास के तशकील-ओ-तरवीज तक महदूद है, “ऐसी शाइ’री दिमाग़ी जलक़ है। लिखने और पढ़ने वाले दोनों के लिए में उसे मुज़िर समझता हूँ।”

    मंटो ने अपने नसब-उल-ऐ’न की तलाश के लिए इंसानी तजरबे की इन आबादियों में गश्त किया जिस पर एक औसतियत-ज़दा अख़्लाक़ियात ने बे-ख़बरी के पर्दे डाल दिए थे, ये बे-ख़बरी एक तो समाजी, मुआ’शरती और अख़्लाक़ी मुआ’मलात में रवैये के यक-रुख़ेपन का नतीजा थी, दूसरे इसलिए भी कि मंटो के मुआ’सिरीन को अपनी ज़ात पर वो तख़्लीक़ी ए’तिमाद, क़ल्ब-ओ-नज़र की वो बे-ख़ौफ़ी मयस्सर न थी जो मंटो के यहाँ हमें वाफ़िर दिखाई देती है। लेकिन इसका अहम-तरीन सबब वो सच्चाई है जिसका रिश्ता मंटो की अख़्लाक़ियात से जुड़ा हुआ है। इस सच्चाई को हम एक तरह की अख़्लाक़ी मुसावात का नाम दे सकते हैं। इस मुसावात का एहसास मंटो को एक ऐसी सत्ह पर ले जाता है जहाँ उसके किरदार और ख़ुद उसकी अपनी ज़ात के माबैन ज़हनी, अख़्लाक़ी, तहज़ीबी और मुआ’शरती दर्जात का कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता।

    “उसकी नज़र में कोई इंसान बे-वक़अ’त नहीं था। वो हर आदमी से इस तवक़्क़ो’ के साथ मिलता था कि उसकी हस्ती में भी ज़रूर कोई न कोई मा’नवियत पोशीदा होगी जो एक न एक दिन मुनकशिफ़ हो जाएगी। मैंने उसे ऐसे-ऐसे अ’जीब आदमियों के साथ हफ़्तों घूमते देखा है कि हैरत होती थी। मंटो उन्हें बर्दाश्त कैसे करता है। लेकिन मंटो बोर होना जानता ही न था। उसके लिए तो हर आदमी ज़िंदगी और इंसानी फ़ितरत का एक मज़हर था, लिहाज़ा हर शख़्स दिलचस्प था। अच्छे और बुरे, ज़हीन और अहमक़, मुहज़्ज़ब और ग़ैर-मुहज़्ज़ब का सवाल मंटो के यहाँ ज़रा न था। उसमें तो इंसानों को क़ुबूल करने की सलाहियत इतनी ज़बरदस्त थी कि जैसा आदमी मंटो के साथ हो मंटो वैसा ही बन जाता था।”

    - मुहम्मद हसन अ’सकरी, (मंटो)

    (5)
    यहाँ सवाल उठता है कि फिर मंटो को फ़ह्हाशी का क़ुसूरवार ठहराया क्यों गया? बेहतर होगा कि इस मसअले पर गुफ़्तगू से पहले हम फ़ह्हाशी के उस तसव्वुर पर भी एक नज़र डालते चलें जिसका तअ’ल्लुक़ अदब से है और जो एक अ’र्से से बेहस-ओ-मुबाहिसा का मौज़ू’ बना हुआ है। फ़न्नी इज़हार के जितने भी असालीब इंसान ने अब तक दरियाफ़्त किए हैं, इस मसअले से क़त’-ए-नज़र कि उनका सर-चश्मा इंसानी तजरबात के जिन इलाक़ों से तअ’ल्लुक़ रखता है, वो मुआ’शरती अख़्लाक़ के लिए ममनूआ’ हैं या क़ाबिल-ए-क़ुबूल, बुनियादी तौर पर जमालियात का मसअला हैं और इस दायरे में रह कर ही उन पर कोई बा-मअ’नी गुफ़्तगू की जा सकती है।

    इस सिलसिले में मंटो का मौक़िफ़ बहुत वाज़ेह है और इसकी जानिब पहले भी इशारा किया जा चुका है कि मंटो के नज़दीक वो “अदब-पारा” जिसका अव्वलीन मक़सद क़ुव्वत-ए-बाह में इज़ाफ़ा या उस क़ुव्वत के इज़हार का कोई सहल-उल-हुसूल नुस्ख़ा ढूँढ निकालना हो, दर-अस्ल अदब है ही नहीं, लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे अस्हाब जिनके तख़य्युल की ज़रख़ेज़ी तिब्ब की किताबों और दीनी रसाइल में भी जिन्सी लज़्ज़त-अंदोज़ी के वसाइल की दरियाफ़्त पर क़ादिर हो, उनका शऊ’र किसी भी अदब पारे में दर-ए-मक़सूद के हुसूल से बहरावर हो सकता है।

    “ऊपर, नीचे और दरमियान” में मंटो ने इस रवैये पर तंज़ के बहुत सुबुक वार किए हैं। इस कहानी के दो किरदार “लेडी चैटरलीज़ लवर” का मुताला’ अपनी औलाद के लिए तो मज़र्रत-रसाँ समझते हैं मगर ख़ुद उस किताब के जस्ता-जस्ता इक़्तिबासात के ज़रीए’ उस लम्हे की तलाश करते हैं जो उनकी सोई हुई कुव्वतों को मुतहर्रिक कर सके। उनके आसाब की कमज़ोरियों का हाल ये है कि किताब के बा’ज़ जुमलों पर नज़र पड़ते ही उनकी नब्ज़ की रफ़्तार तेज़ हो जाती है। ऐसे लोग न जिन्स के मसाइल समझ सकते हैं, न उस अदब के जिसमें जिन्सी तजरबों की विसातत से इंसानी वजूद की कायनात-ए-असग़र के किसी पहलू पर रोशनी डाली गई हो।

    चुनाँचे किसी अदब पारे में जिन्सी इश्तिआ’ल के उं’सुर का होना या न होना बे-मअ’नी है। इस मसअले की बुनियाद पर हम न तो उस अदब-पारे की जमालियाती तक़वीम कर सकते हैं न ही उस पर किसी जमालियाती फ़ैसले का इतलाक़ कर सकते हैं। बेहस सिर्फ़ इस बात से होनी चाहिए कि उस इश्तिआ’ल के नुक़्ते तक रसाई या उस उं’सुर की पहचान के लिए क़ारी ने क्या रास्ता इख़्तियार किया है। मुम्ताज़ शीरीं ने मंटो पर अपने मज़्मून में उसके उस्लूब का तज्ज़िया करते हुए लिखा है,

    “ठंडा गोश्त, एक ऐसा अफ़साना है जिसे हम मंटो के फ़न के मुकम्मल नमूने के तौर पर ले सकते हैं। मंटो के उस्लूब-ए-तहरीर में ग़ज़ब की चुसती है। ‘ठंडा गोश्त’ इतना गठा हुआ, चुस्त और मुकम्मल अफ़साना है कि उसमें एक लफ़्ज़ भी घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। अशर सिंह के टूटे-फूटे जुमलों में उस मुज़्तरिब दिल-ओ-दिमाग़ की सारी कर्ब-अंगेज़ कैफ़ियत खिंच आई है। पहले मंटो को कोई किरदार उभारना होता था तो वो कई एक वाक़िआ’त के ज़रीए’ और ख़ुद अपनी तरफ़ से उनकी सिफ़त बयान कर के ये किरदार उभारता था। ‘ठंडा गोश्त’ के दो-तीन इब्तिदाई पैराग्राफ़ों में सिर्फ़ जिस्मानी साख़्त और चंद एक हरकात के बयान में अशर सिंह और कुलवंत कौर के ग़ैर-मा’मूली किरदार उभर आए हैं। मोपासाँ के बारे में कहा गया है कि जब वो किसी गैर-मा’मूली गर्म और शहवत-अंगेज़ औ’रत का करता है तो उस तहरीर का काग़ज़ तक ताज़ा गर्म गोश्त की तरह फड़कने लगता है। कुछ यही कैफ़ियत कुलवंत कौर के बयान में है।” (मंटो का तग़य्युर और इर्तिक़ा)

    दूसरी तरफ़ ‘ठंडा गोश्त’ के मुक़द्दमे में एक गवाह-ए-सफ़ाई डाक्टर सई’दुल्लाह का ये बयान है कि अफ़साना ‘ठंडा गोश्त’ पढ़ने के बा’द में ख़ुद ठंडा गोश्त बन गया। एक और क़ारी (मौलाना अख़तर अली) का रद्द-ए-अ’मल मुक़द्दमे की समाअ’त के दौरान ये था कि अब ऐसा अदब पाकिस्तान में नहीं चलेगा और उन्हीं की क़बील के दूसरे बुज़ुर्ग (चौधरी मुहम्मद हुसैन) ने फ़रमाया कि इस कहानी की थीम ये है कि हम मुसलमान इतने बे-ग़ैरत हैं कि सिखों ने हमारी मुर्दा लड़की तक नहीं छोड़ी। वैसे मंटो ने अपने तईं इस कहानी के ज़रीए’ दूसरों तक एक पैग़ाम पहुँचाने की ख़िदमत अंजाम दी थी।

    “यूँ तो ये कहानी ब-ज़ाहिर जिन्सी नफ़सियात के एक नुक्ते के गिर्द घूमती है लेकिन दर-हक़ीक़त इसमें इंसान के नाम एक निहायत ही लतीफ़ पैग़ाम दिया गया है कि वो ज़ुल्म, तशद्दुद और बरबरीयत-ओ-हैवानियत की आख़िरी हुदूद तक पहुँच कर भी अपनी इंसानियत नहीं खोता। अगर अशर सिंह अपनी इंसानियत खो चुका होता तो मुर्दा औ’रत का एहसास उस पर इतनी शिद्दत से कभी असर न करता कि वो अपनी मर्दानगी से आ’री हो जाता।”

    वो बुज़ुर्ग जिन्होंने इस अफ़साने के सिलसिले में मंटो को तीन माह क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त और तीन सौ रुपये जुर्माने की सज़ा दी थी, उनका मौक़िफ़ इस बाब में ये था कि पाकिस्तान के मुरव्वजा अख़्लाक़ी मेया’र क़ुरान-ए-पाक की ता’लीम के सिवा और कहीं से ज़ियादा सही तौर पर मा’लूम नहीं हो सकते। ग़ैर-शाइस्तगी और और शहवत-परस्ती शैतान की तरफ़ से है। एक तरक़्क़ी-पसंद नक़्क़ाद (मुम्ताज़ हुसैन) का तब्सिरा यूँ है कि मंटो नेकी की तलाश में निकलता है और उसकी किरन एक ऐसे इंसान के पेट से निकालता है जिसके बारे में आप इस क़िस्म की तवक़्क़ो’ नहीं रखते। ये है मंटो का कारनामा लेकिन ज़ाहिर है कि मंटो का अस्ल कारनामा ब-ए-हैसियत-ए-अदीब ये हरगिज़ नहीं है। रही इस मुक़द्दमे के मुंसिफ़ और इस्तग़ासे के बा’ज़ गवाहों की बात, तो उनके बारे में मंटो का ये ख़याल ग़लत न था कि उनके सामने अपनी सफ़ाई में बयान देना भैंस के आगे बीन बजाने के मुतरादिफ़ था।

    किसी के नज़दीक फ़ह्हाशी का मसअला सियासत की हुदूद तक जा पहुँचा, किसी ने उसे इस्लाम के लिए ख़तरे का निशान समझा। एक साहब उसे मंटो के बजाए शैतान का कारनामा क़रार दे बैठे तो दूसरी तरफ़ एक हम-दर्द नक़्क़ाद ने उसे नेकी की तलाश के एक सफ़र से ता’बीर किया। मुझे इस सवाल से ग़रज़ नहीं कि रद्द-ए-अ’मल की इन तमाम सूरतों में कौन सी सूरत निस्बतन बेहतर मंतक़ी असास रखती है और हम ख़ुद को उससे मुत्तफ़िक़ पाते हैं या नहीं। मेरा मसअला वो पैग़ाम भी नहीं जो इस कहानी की वसातत से मंटो ने आ’म करना चाहा है कि ये काम तो मा’मूली क़िस्म के वाइ’ज़ भी कर सकते हैं। अदब के एक क़ारी की हैसियत से हमारा सरोकार इस मसअले से होना चाहिए कि ये पैग़ाम या अख़्लाक़ी नसब-उल-ऐ’न अदब बन सका है या नहीं। इस “ज़िल्लत और शैतनत” के ए’तिबार की बुनियादें अख़्लाक़ियात की ज़मीन पर न सही, फ़न्नी एहसास-ओ-इज़हार की सत्ह पर क़ाइम हो सकी हैं या नहीं। अख़्लाक़ ब-क़ौल फ़िराक़, “नख़्ल-ए-लब-ए-दरिया-ए-मआ’सी” है या ख़ैर के छींटों से नुमू पाने वाला शजर-ए-साया-दार, यहाँ ये तमाम सवालात ज़िम्नी हैसियत रखते हैं और महज़ इनसे मंटो के अदबी मंसब में इज़ाफ़ा होता है न तख़्फ़ीफ़।

    अदब में जिन्सी तजरबों की शुमूलियत के सवाल पर बेहस करते हुए हमें जमालियाती इम्तियाज़ात को बहर-सूरत पेश-ए-नज़र रखना चाहिए। चुनाँचे मुम्ताज़ शीरीं की इस राय पर नज़र डालते वक़्त भी कि मंटो के शहवत-अंगेज़ निस्वानी किरदार सौगंधी, नीलम और कुलवंत कौर अपने तेज़ जज़्बात के साथ जानदार और फड़कते हुए दिखाई देते हैं, इस कैफ़ियत के साथ कि इस तहरीर का काग़ज़ तक, जिनपर इनका ज़िक्र हो “ताज़ा गर्म गोश्त की तरह फड़कने लगता है।” हमें ये न भूलना चाहिए कि मंटो अपने किरदारों के अ’मल की ग़ायत में इंसानी सत्ह पर चाहे जिस हद तक शरीक रहा हो, ब-तौर अफ़्साना-निगार वो मा’रूज़ियत के एहसान की क़द्र-ओ-क़ीमत का भी गहरा शऊ’र रखता है। इस ज़िम्न में ख़ुद मंटो की अपनी तसरीहात और बयानात सफ़ाई को ज़ियादा अहमियत न देनी चाहिए कि एक तो उनके मक़ासिद महदूद थे, दूसरे मंटो जैसी ज़हानत रखने वाले शख़्स से ये अम्र कुछ बई’द न था कि अपनी ग़लत-गुमानियों को सही साबित करने के लिए भी वो इधर-उधर से दलाएल यकजा कर के एक अच्छा ख़ास्सा मुक़द्दमा तैयार कर ले।

    ‘लज़्ज़त-ए-संग’ में मंटो ने कहा था कि मेरे नज़दीक क़साइयों की दूकानें फ़ुहश हैं क्योंकि उनमें नंगे गोश्त की बहुत बद-नुमा और खुले तौर पर नुमाइश की जाती है। ये अल्फ़ाज़ अहम हैं क्योंकि इनका तअ’ल्लुक़ उसी असासी मसअले से है जिसे हम मंटो के जमालियाती और फ़न्नी अ’मल के तनाज़ुर में देख सकते हैं और उनसे मंटो के तख़्लीक़ी रवैये की तई’न में कुछ रोशनी हासिल कर सकते हैं। मंटो ने ‘ठंडा गोश्त’ की क़िस्म के अफ़्सानों में जहाँ कहीं अपने किसी किरदार के गर्म और तेज़ जज़्बात की तस्वीरें खींची हैं, ऐसे तमाम मवाक़े’ कहानी के इर्तिक़ा की चंद कड़ियों से ज़ियादा अहमियत नहीं रखते, चुनाँचे मक़्सूद-बिज़्ज़ात नहीं हैं। ये मवाक़े’ उस शदीद लम्हे की जानिब सफ़र की रफ़्तार को तेज़ कर देते हैं जो मंटो के सफ़र की अस्ल मंज़िल या उसकी कहानियों का नुक़्ता-ए-उ’रूज और इख़्तितामिया है। और ज़ाहिर है कि उस लम्हे तक पहुँचते पहुँचते सिफ़्ला जज़्बात की सत्हों को मुरतइ’श करने वाली शोख़ और रंगीन तस्वीरें उस लम्हे के मलाल और उसकी इस्तिजाबी कैफ़ियत में डूब जाती हैं और उनका इन्फ़िरादी तअस्सुर ज़ाइल हो जाता है। कहानी के मजमूई’ ढाँचे और उसकी तख़्लीक़ी वहदत से हमेशा ग़लत रास्ते पर ले जाने का सबब बनती है।

    मंटो की कहानियों के मजमूई’ तनाज़ुर में इन तस्वीरों को देखा जाए तो अंदाज़ा होगा कि उसकी बेशतर कहानियों के टेक्स्चर की मंतिक़ इन तस्वीरों को एक ना-गुज़ीरियत अ’ता करती है। फ़ुहश ज़हनी का मुर्तक़िब वो इस सूरत में होता जब ये तस्वीरें उसकी कहानियों के फ्रे़म में कलीदी नुक़्ते के तौर पर एक ख़ुद मुक्तफ़ी और क़ाइम-बिल-ज़ात हैसियत की हामिल होतीं और ये नुक़्ता एक फैलते हुए दायरे की सूरत कहानी के पूरे तअस्सुर को अपनी गिरफ़्त में ले लेता। मंटो ने हाली, इक़बाल और बहिश्ती ज़ेवर की ज़हनी ग़िज़ा पर परवरिश पाने वाले ब-ज़ाहिर मुनज़्ज़ह और मिसाली इंसान के मुक़ाबले में इंसान को उसकी कुल्लियत में, उसके अंदरूनी तज़ादात और उसके बातिन की सत्ह पर जारी रहने वाली अँधेरे और उजाले की मुस्तक़िल कश्मकश के आईने में देखने की जुरअत की है। इन कहानियों को यूरोप की Erotica के तौर पर पढ़ना भी मुनासिब न होगा, न ही उन्हें जाफ़र ज़टल्ली के कुल्लियात और मुतशर्रे बुज़ुर्गों की उन मसनवियों के साथ रखा जा सकता है जिनमें इज़हार की बेबाकी गाली का और मा’शूक़ से वस्ल के मुनाज़िर Blue Films का रूप इख़्तियार कर लेते हैं।

    वो बोकेशेव या बालज़ाक की तरह जिन्सी मुहिमात की नक़्श-गरी अगर करता भी है तो इस तरह कि एक इंतिहाई ज़ाती अ’मल एक वसीअ’-तर समाजी तसव्वुर की कलीद बन जाता है और पुरानी दास्तानों के किसी जादूई कलमे की मानिंद एक पुर-असरार, ना-दीदा और नौ-दरियाफ़्त मंज़रनामे का बाब खुलता है। ये रवैया मंटो को बा’ज़ ए’तिबारात से बोदलियर और लौरेंस की तरह एक ज़बरदस्त अख़्लाक़ी वज़्न रखने वाले अदीब की हैसियत देता है मगर एक बहुत बड़े फ़र्क़ के साथ कि मंटो की हक़ीक़त-पसंदी जिन्सी अफ़आल की मा’नवियत में मुआ’शरे से वाबस्ता चंद सवालात के जवाब तक तो पहुँचती है लेकिन उनमें किसी सिर्री, मुतसव्वुफ़ाना या माबा’द तबई’ मंतिक़ का सिरा नहीं ढूँढती। मजमूई’ तौर पर यही अंदाज़-ए-नज़र मंटो की अख़्लाक़ियात को तरक़्क़ी-पसंदों और एक दीनी या मुतसव्वुफ़ाना ज़हनी माहौल की तर्जुमानी करने वाले अदीब-नुमा मुअ’ल्लिमों की आईडियलिज़्म के तसव्वुर से मुतमय्यज़ करता है और उसे ज़ियादा बसीत, बा-मअ’नी और फ़ितरी बनाता है।

    उसके आईने में जो अ’क्स दिखाई देते हैं वो न सिर्फ़ समाजी इंसान के हैं न मज़हबी इंसान के बल्कि एक मरबूत इंसान के ख़द-ओ-ख़ाल से मुज़य्यन हैं। मंटो उनके आ’माल की ग़ायत को समझने के लिए न किसी समाजी फ़लसफ़े का मुहताज होता है न मज़हब, तसव्वुफ़ और मा-बाद-उल-तबीआ’त के पुर-असरार जहानों की सैर का तालिब होता है। उसकी जसारत-आमेज़ हक़ीक़त पसंदी किसी बैरूनी सहारे की तलाश नहीं करती और अपने मुहीब अलम-आलूद इन्किशाफ़ात के ज़रीए’ इस आ’म मफ़रूज़े की नफ़ी भी करती है कि जिन्सी तजरबे की हदें इतनी तुंदी और इख़लास के सबब बिल-आख़िर एक नीम-मज़हबी तजरबे से जा मिलती हैं। ऐसा न होता तो मंटो भी आचार्य रजनीश की तरह किसी कल्ट का अलमबरदार बन जाता और उसकी तहरीरें एक सहीफ़े की सूरत इख़्तियार कर लेतीं। वो इंसानी तजरबात की ऐसी सत्हों तक जा पहुँचता है जो बहुत सादा और दो-टूक नहीं हैं। ताहम वो किसी भी सत्ह पर जिस्म के वजूद को एक फ़रेब या अपने किरदारों को एक तसव्वुर की शक्ल में देखने पर आमादा नहीं होता।

    मंटो की कहानियों में इसीलिए फ़न्नी तंज़ीम के शऊ’र से पैदा होने वाली रम्ज़ियत और चुस्ती के बावुजूद सत्ह का खुरदरापन और बयान का बे-तसन्नो’, बे-साख़्ता फ़ितरी बहाव बहुत वाज़ेह है। वो अपने बयान को दिलचस्प बनाने के लिए किसी भी क़िस्म के लिसानी और उसलूबियाती तकल्लुफ़ से काम नहीं लेता, न इज़हार की मजमूई’ हैअत में नुक़्ता-ए-कमाल तक रसाई का तालिब होता है, फिर भी उसकी कहानियाँ पढ़ने वाले पर एक तजरबे की सूरत वारिद होती हैं। ऐसा सिर्फ़ इसलिए ही कि मंटो की निगाह मानूस वाक़िआ’त की रस्मियत के ज़ाईदा ग़ुबार में भी रोशनी के उन तमाम नुक़्तों को पहचान लेती है जिनकी तरतीब से उसकी कहानियों का ख़ारिजी ढाँचा वजूद में आता है। लौरेंस के बारे में उसके एक सवानह-निगार का क़ौल है कि वो तर्शे-तरशाए, साफ़, मुनज़्ज़ह फ़नपारों, निक-सुक से दुरुस्त नपी-तुली हुई हैअतों और ख़ूबसूरत, आरास्ता, पुर-शिकोह इ’मारतों से इसलिए बेज़ारी महसूस करता था कि उनमें सादगी का वो जौहर मफ़क़ूद होता है जिसकी एक सत्ह खुरदरापन है।

    मौसीक़ी में उसे एहतियात, सलीक़े और इंतिहाई मेहनत से मुरत्तब की हुई सिम्फनीज़ के मुक़ाबले में अ’वामी गीत ज़ियादा मुतवज्जेह करते थे कि उनकी नुमू एक फ़ौरी, ख़ुद-कार तशवीक की वसातत से होती है। वो अपने एहसासात के हवाले से तजरबे की जो भी हैअत दरियाफ़्त करता था उसे जूँ का तूँ काग़ज़ पर मुंतक़िल कर देता था और इस अ’मल में शऊ’र की मुदाख़िलत-ए-बेजा से हमेशा डरता और बचता था। उसकी तलाश बस ये होती थी कि जो कुछ भी वो ख़ल्क़ करे उसका सरचश्मा तमाम-ओ-कमाल उसके बातिन में पोशीदा पुर-असरार और ग़ैर-अ’क़्ली तवानाईयाँ हों, हर तरह के बैरूनी जब्र, तरग़ीब और मस्लेहत से यकसर आज़ाद और मुबर्रा।

    लौरेंस के यहाँ हवास की तहारत को क़ाइम रखने की इस लगन ने एक सूफ़ियाना इस्तिग़राक़ की कैफ़ियत पैदा कर दी थी। वो किसी राहिब की मिसाल अपनी ख़ल्वतों के सन्नाटे में मुतय्यन और मलूल कश्फ़ के उन लम्हों का मुंतज़िर रहता था जो उस तक जिस्म की रूहानियत के राज़ों की ख़बर ला सकें। इस रवैये के तसल्लुत ने लौरेंस के यहाँ एक ग़ैर-अ’र्ज़ी, किसी क़दर जज़्बाती और सिर्री कैफ़ियत को जनम दिया है। ये कैफ़ियत जिन्स को इ’बादत और जिस्म को बिल-आख़िर एक तजरीद बना देती है, मसलन लेडी चैटरलीज़ लवर के ये इक़्तिबासात,

    And he had to come in to her at once, to enter the peace on earth of her soft-quiescent body…

    For down in her she felt a new stirring, a new nakedness emerging…

    And it seemed she was like the sea, nothing but dark waves rising and heaving, heaving with great swell, so that slowly her whole darkness was in motion, and she was ocean rolling its dark dumb mass. Oh, and far down inside her the deeps parted and rolled asunder, from the centre of soft plunging, and the plunger went deeper and deeper disclosed, the heavier the billows of her rolled away to some shore, uncovering her, and close and closer plunged the palpable unknown,and further and further rolled the waves of her self away from herself, leaving her, till suddenly, in a soft shuddering convulsion, the quick of all her plasm was touched she knew herself touched, the consummation was upon her, and she was gone.

    लीजिए क़िस्सा ख़त्म रोज़मर्रा ज़िंदगी की एक जीती-जागती हक़ीक़त इर्तिफ़ा के एक मावराई मरहले को उ’बूर करती हुई कहाँ जा पहुँची? सीधे सादे लफ़्ज़ों में उसे हम हक़ीक़त के उस सफ़र से ता’बीर कर सकते हैं जिसकी मंज़िल-ए-मुराद मजाज़ का नुक़्ता है या’नी ये रगों में दौड़ता, चहकता, बोलता लहू बिल-आख़िर एक हिस्सी कैफ़ियत में तब्दील हो गया। इसके बर-अ’क्स मंटो के निगार-ख़ाने की ये चंद तस्वीरें,

    “कुलवंत कौर अपने बाज़ू पर उभरे हुए लाल धब्बे को देखने लगी, ‘बड़ा ज़ालिम है तो अशर सय्याँ!’ अशर सिंह अपनी घनी काली मूंछों में मुस्कुराया, ‘होने दे आज ज़ुल्म!’ और ये कह कर उसने मज़ीद ज़ुल्म ढाने शुरू’ किए। कुलवंत कौर का बालाई होंट दाँतों तले कचकचाया, कान की लवों को काटा, उभरे हुए सीने को भंभोड़ा, भरे हुए कूल्हों पर आवाज़ पैदा करने वाले चाँटे मारे, गालों के मुँह भर भर के बोसे लिए, चूस-चूस कर उसका सारा सीने थूकों से लथेड़ दिया। कुलवंत कौर तेज़ आँच पर चढ़ी हुई हांडी की तरह उबलने लगी, लेकिन अशर सिंह इन तमाम हीलों के बावुजूद ख़ुद में हरारत पैदा न कर सका। जितने गुर और जितने दाव उसे याद थे, सब के सब उसने पिट जाने वाले पहलवान की तरह इस्ति’माल कर दिए, पर कोई कारगर न हुआ। कुलवंत कौर ने जिसके बदन के सारे तार तन कर ख़ुद-ब-ख़ुद रहे थे, ग़ैर-ज़रूरी छेड़-छाड़ से तंग आकर कहा, ‘अशर सय्याँ, काफ़ी फेंट चुका है, अब पता फेंक!’...”

    “दीवार का सहारा लेकर मसऊद ने अपने जिस्म को तोला और इस अंदाज़ से आहिस्ता-आहिस्ता कुलसूम की रानों पर अपने पैर जमाए कि उसका आधा बोझ कहीं ग़ायब हो गया। हौले-हौले बड़ी होशियारी से उसने पैर चलाने शुरू’ किए। कुलसूम की रानों में अकड़ी हुई मछलियाँ उसके पैरों के नीचे दब-दब कर इधर-उधर फिसलने लगीं। मसऊद ने एक-बार स्कूल में तने हुए रस्से पर एक बाज़ीगर को चलते हुए देखा था। उसने सोचा कि बाज़ीगर के पैरों के नीचे तना हुआ रस्सा इसी तरह फिसलता होगा।”

    “सारी रात रणधीर को उसके बदन से अ’जीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की बू आती रही थी। उस बू को जो ब-यक-वक़्त ख़ुशबू और बदबू थी, वो तमाम रात पीता रहा। उसकी बग़लों से, उसकी छातियों से, उसके बालों से, उसके पेट से, हर जगह से, ये जो बदबू भी थी और ख़ुशबू भी, रणधीर के हर साँस में मौजूद थी। तमाम रात वो सोचता रहा कि ये घाटन लड़की बिल्कुल क़रीब होने पर भी हरगिज़-हरगिज़ इतनी ज़ियादा क़रीब न होती, अगर उसके नंगे बदन से ये बू न उड़ती। ये बू जो उसके दिल-ओ-दिमाग़ की हर सिलवट में रेंग गई थी, उसके तमाम पुराने और नए ख़यालों में रच गई थी। उस बू ने इस लड़की को और रणधीर को एक रात के लिए आपस में हल कर दिया था। दोनों एक दूसरे के अंदर दाख़िल हो गए थे। अ’मीक़-तरीन गहराईयों में उतर गए थे जहाँ पहुँच कर वो एक ख़ास इंसानी लज़्ज़त में तब्दील हो गए थे, ऐसी लज़्ज़त जो लम्हाती होने के बावुजूद दाइमी थी, माइल-ए-परवाज़ होने के बावुजूद साकिन और जामिद थी। वो दोनों एक ऐसा पंछी बन गए थे जो आसमान की नीलाहटों में उड़ता-उड़ता ग़ैर-मुतहर्रिक दिखाई देता है।”

    इनमें पहली दो तस्वीरें हक़ीक़त की तबई’ सत्ह से एक पल के लिए ऊपर नहीं उठतीं और उनके किरदार अपने गोश्त-पोस्त के साथ पढ़ने वाले को मुतहर्रिक दिखाई देते हैं। तीसरी तस्वीर हक़ीक़त के मशहूद तजरबे को एक ग़ैर-मुरई तअस्सुर की सत्ह तक ले जाती है और वाक़िए’ को कैफ़ियत में मुंतक़िल करती है, इसके बावुजूद तजरबे की अ’र्ज़ी बुनियादें मुनहदिम नहीं होतीं और इसके किरदार किसी बई’द-अज़-क़यास, अन-देखी और पुर-असरार फ़िज़ा में तहलील नहीं होते। चुनाँचे उनकी मौजूदगी और बशरियत के हुदूद का तअस्सुर क़ाइम रहता है। इंसानियत के शऊ’र की एक सत्ह ये भी है कि इंसानी वजूद का इस्बात उसकी कुल्लियत के हवाले से किया जाए और अच्छे बुरे आ’माल की बेहस से अलग हो कर इंसान को समझने की जुस्तजू की जाए।

    बौदलियर ने रूमानवियों के तकमील-ए-ज़ात के नज़रिए को इस तसव्वुर की बुनियाद पर मुस्तरद किया था कि इंसान पेशाब की थैली के नीचे नौ महीने गुज़ारता है, चुनाँचे उसका पाक और मुनज़्ज़ह होना ख़ारिज-अज़-इमकान है। इसी के साथ वो ये भी समझता था कि ख़ैर की नुमूद गुनाह के एहसास के बग़ैर मुम्किन ही नहीं हो सकती। एक अ’र्से तक इस नौ’ के तसव्वुरात को लोग शैतानी कुव्वतों के इज़हार से ता’बीर करते रहे, लेकिन अब जबकि इस मुआ’मले में आ’म नुक़्ता-ए-नज़र ख़ासा तब्दील हो चुका है, बौदलियर के मुताले’ की एक नई नहज भी दरियाफ़्त की जा चुकी है और न सिर्फ़ ये कि इसके यहाँ एक बा-ज़ाब्ता निज़ाम-ए-अख़्लाक़ की मौजूदगी का ज़िक्र बड़े ख़ुशू’-ओ-ख़ुज़ू’ के साथ किया जाता है, बल्कि इस निज़ाम के डांडे बौदलियर की कैथोलीसिज़्म से भी मिला दिए गए हैं।

    मंटो की अख़्लाक़ियात, जैसा कि पहले अ’र्ज़ किया जा चुका है, इस क़िस्म के किसी भी तनाज़ुर की गुंजाइश नहीं रखती। उसके यहाँ अल्फ़ाज़ की जो किफ़ायत, उस्लूब में जो चुस्ती और कहानियों के मजमूई’ आहंग में जो ग़ैर-जज़्बातियत नुमायाँ है, वो इंसान की तरफ़ उसके मख़्सूस रवैये की ज़ाईदा है। ये रवैया बौदलियर या लौरेंस या मुतक़द्दिमीन के रवय्यों से मुख़्तलिफ़ ही नहीं, उन सबसे ज़ियादा हक़ीक़त-पसंदाना भी है। शायद इसीलिए हम मंटो की फ़िक्र को अपने ज़माने की फ़िक्र से निस्बतन ज़ियादा हम-आहंग पाते हैं। और उसे बौदलियर या लौरेंस की तरह एक अख़्लाक़ी वज़्न रखने वाले अदीब की हैसियत देने के बावुजूद उसे हम इन बा-कमालों से इस दर्जा अलग भी देखते हैं।

    यूँ मंटो ने कभी भी इस ज़िम्न में ऐसी फ़लसफ़ा-तराज़ी भी की है जो उसके मा’रुज़ी और हक़ीक़त-पसंदाना अख़्लाक़ी तसव्वुर को एक नए फ़िक्री तनाज़ुर में देखने का तक़ाज़ा करती है। मसलन उसके ये अल्फ़ाज़, “दो रूहों का सिमट कर एक हो जाना और एक हो कर वालिहाना वुसअ’त इख़्तियार कर जाना। दो रूहें सिमट कर उस नन्हे से नुक्ते पर पहुँचती हैं, जो फैल कर कायनात बनता है।”, उसके आ’म रवैये से मेल नहीं खाते और मंटो को तजरबे की वाक़ई’य्यत के बजाए उसके इमकान का अ’क्कास ठहराते हैं। मेरा ख़याल है कि इस नौ’ के बयानात की हक़ीक़त सिर्फ़ इस क़दर है कि मंटो मलामातों की बारिश में चंद मफ़रूज़ात को ढाल बनाने के जतन भी करता था। इसीलिए उसके इन मज़ामीन में जो अपने मौक़िफ़ की वज़ाहत के लिए लिखे गए, बा’ज़ मुक़ामात पर ए’तिदाज़ का अंदाज़ भी बहुत वाज़ेह है।

    इक्का-दुक्का मुस्तसनियात से क़त’-ए-नज़र, मंटो के यहाँ जिन्सी वारदात के बयान या फ़ह्हाशी के तसव्वुर की बाबत एक ग़ैर-मुबहम और ग़ैर-जज़्बाती साफ़-गोई मिलती है। जिस तरह वो आ’म ज़िंदगी में भी ब-ज़ाहिर ग़ैर-शरीफ़ाना ज़िंदगी गुज़ारने वालों से बे-झिझक मिलता था, उसी तरह अपनी कहानियों में लुच्चों, लफंगों, भड़वों, तवाइफ़ों, क़ातिलों, शराबियों, ग़रज़े-कि अख़्लाक़ी जराइम का इर्तिकाब करने वालों के बयान में भी वो साफ़-गो नज़र आता है। उसका लब-ओ-लहजा किसी भी क़िस्म के अख़्लाक़ी और फ़लसफ़ियाना पोज़ से कोई इ’लाक़ा नहीं रखता। ये साफ़-गोई मंटो के यहाँ उसके अख़्लाक़ी त’अह्हुद ही के नतीजे में पैदा हुई है। ब-सूरत-ए-दीगर जिन्सी जज़्बात या जिन्सी वारदात की अ’क्कासी में उसकी साफ़-गोई मोराविया की तरह एक दिलचस्प इब्तिज़ाल की शक्ल भी इख़्तियार कर सकती थी।

    मोराविया और मंटो दोनों जिन्सी एहसासात की तर्जुमानी में गैर-मा’मूली महारत रखते हैं। दोनों उन एहसासात की नफ़सियाती जिहतों के शनासा हैं। ताहम मंटो का मुआ’मला इस लिहाज़ से मुख़्तलिफ़ है कि उसका मक़सूद जिन्सी कवाइफ़ और वारदात की कोरी तस्वीर-कशी नहीं है। ये सही है कि वो ऊपर से किसी अख़्लाक़ी फ़ैसले का नफ़ाज़ नहीं करता, फिर भी उसके किरदारों का अ’मल बिल-आख़िर अपने समाजी सियाक़ की जानिब हमें मुतवज्जेह करता है। उसकी कहानियों के ख़ारिजी ढाँचे से एक अख़्लाक़ी लहर ख़ुद-ब-ख़ुद नुमूदार होती है और उनके इख़्तिताम पर क़ारी लज़ीज़ वारदात की तस्वीरों के बजाए ख़ुद को कहानी के मजमूई’ तअस्सुर या उस मर्कज़ी नुक़्ते से दो-चार पाता है जिसकी हैसियत मंटो के बुनियादी वज़्न का क़ुफ़्ल खोलने वाली कलीद की है। ज़ाहिर है कि अदब का मक़सद जिन्सी वारदात का बे-कम-ओ-कास्त बयान है भी नहीं। ये ख़िदमत समाजियात के माहिरीन बेहतर तौर पर अंजाम दे सकते हैं। मंटो अपने तजरबात को एक शऊ’र की सत्ह पर दरियाफ़्त करता है, फिर उन्हें ठोस और ज़ी-रूह इस्तिआ’रों की मदद से अज सर-ए-नौ ख़ल्क़ करता है।

    “उसके ख़ारिश-ज़दा कुत्ते ने भौंक-भौंक कर माधव को कमरे से बाहर निकाल दिया। सीढ़ियाँ उतारकर जब कुत्ता अपनी टुंड-मुंड दुम हिलाता सौगंधी के पास वापिस आया और उसके क़दमों के पास बैठ कर कान फड़फड़ाने लगा तो सौगंधी चौंकी, उसने अपने चारों तरफ़ एक हौलनाक सन्नाटा देखा, ऐसा सन्नाटा जो उसने पहले कभी न देखा था। उसे ऐसा लगा कि हर शय ख़ाली है। जैसे मुसाफ़िरों से लदी हुई रेल-गाड़ी सब स्टेशनों पर मुसाफ़िर उतार कर अब लोहे के शैड में बिल्कुल अकेली खड़ी है। ये ख़ला जो अचानक सौगंधी के अंदर पैदा हो गया था। उसे बहुत तकलीफ़ दे रहा था। उसने काफ़ी देर तक इस ख़ला को भरने की कोशिश की मगर बे-सूद। वो एक ही वक़्त में बे-शुमार ख़यालात अपने दिमाग़ में ठूँसती थी। मगर बिल्कुल छलनी का सा हिसाब था, इधर दिमाग़ को पुर करती थी, उधर वो ख़ाली हो जाता। बहुत देर तक वो बेद की कुर्सी पर बैठी रही। सोच-बिचार के बा’द भी जब उस को अपना दिल परचाने का कोई तरीक़ा न मिला तो उसने अपने ख़ारिश-ज़दा कुत्ते को गोद में उठाया और सागवान के चौड़े से पलंग पर उसे पहलू में लिटा कर सो गई।”

    “त्रिलोचन वापिस आ गया। उसने आँखों ही आँखों में मोज़ील को बताया कि पाली कौर जा चुकी है। मोज़ील ने इत्मीनान का साँस लिया। लेकिन ऐसा करने से बहुत सा ख़ून उसके मुँह से बह निकला, ‘ओह डैम इट।’ ये कह कर उसने अपनी महीन-महीन बालों से अटी हुई कलाई से अपना मुँह पोंछा और त्रिलोचन से मुख़ातिब हुई, ‘ऑल राइट डार्लिंग... बाई-बाई।’ त्रिलोचन ने कुछ कहना चाहा मगर लफ़्ज़ उसके हल्क़ में अटक गए। मोज़ील ने अपने बदन पर से त्रिलोचन की पगड़ी हटाई, ‘ले जाओ इसको... अपने इस मज़हब को।’, और उसका बाज़ू उसकी मज़बूत छातियों पर बे-हिस हो कर गिर पड़ा।”

    खोल दो के इख़्तितामिया जुमलों की तरह इन इक़तिबासात में भी कहानी के रग-ओ-पै में दौड़ता हुआ लहू एक नुक़्ते पर खिंच आया है; वाक़िआ’ तअस्सुर बन गया है और किरदारों के सोचने का अ’मल उनके अफ़आ’ल का हिस्सा। इस सत्ह पर मंटो का तख़्लीक़ी रवैया हमें उसके तमाम मुआ’सिरीन के मुक़ाबले में बहुत जानदार दिखाई देता है और ये महसूस होता है कि मंटो अपने तख़्लीक़ी मंसब का जैसा ज़बरदस्त शऊ’र रखता था, उसकी मिसाल हमें उसके मुआ’सिरीन से क़त’-ए-नज़र मग़रिब के उन जलील-उल-क़द्र क़िस्सा-गोयों के यहाँ भी कम-कम ही मिलेगी जो “फ़ुहश-निगारों” की क़बील से तअ’ल्लुक़ रखते हैं।

    अदब में फ़ह्हाशी के उं’सुर पर तब्सिरा करते हुए एक नक़्क़ाद ने कहा था कि किसी फ़ुहश अदबपारे की एक पहचान ये भी होती है कि उसके फ़ुहश हिस्सों को आ’म क़ारी बार-बार पढ़ता है ताकि लज़्ज़त-कोशी का एहसास क़ाइम रहे। इस लज़्ज़त का सामान वाक़िए’ के इ’लावा बयान का ढांचा तैयार करने वाले अल्फ़ाज़ और इस्तिआ’रे फ़राहम करते हैं। पस्त दर्जे की किताबें अज़-अव्वल ता-आख़िर इस फ़िज़ा को क़ारी के सामने से ओझल नहीं होने देतीं। अमरीकियों की इस्तिलाह में इसे हम Hardcore Pornography कह सकते हैं। ये फ़ह्हाशी अच्छे लिखने वालों के यहाँ एक तख़्ईली जिहत इख़्तियार कर लेती है। मिसाल के तौर पर जान बार्थ के नावल The Sot-weed Factor (1960) में या हैनरी मिलर की बा’ज़ किताबों में जिस पर पाऊंडने हेमिंग्वे के नाम अपने एक ख़त में ये बलीग़ तबस्सुर किया था (1924) कि मैंने अभी-अभी एक दिलचस्प फ़ुहश किताब ख़त्म की है जिसका मुसन्निफ़ हैनरी मिलर नामी एक शख़्स है।

    इस मौक़े’ पर हमें ये न भूलना चाहिए कि कुछ न कहने के तरीक़े अदब में कभी भी दिलचस्प नहीं होते। ख़ाली-खोली लफ्फ़ाज़ी या लिसानी दाँव-पेच उस्लूब के माहिरीन के लिए क़ाबिल-ए-तवज्जोह हो सकती है मगर अदब पढ़ने वाले मुतालिबात का सिलसिला इससे आगे भी जाता है। इसका मसअला वो अनोखी इकाई होती है जो लफ़्ज़ और ख़याल के बाहम इंज़िमाम के नतीजे में सामने आती है और हर-चंद कि इसका मक़सद क़ारी तक सिर्फ़ कोई ख़बर ले जाना नहीं होता मगर वो इस उं’सुर से ख़ाली भी नहीं होती। फ़ह्हाशी की सत्ह पर इस रवैये की शायद सबसे बेहतर मिसाल जेम्स ज्वाइस की ‘यूलिसिस’ में मूली ब्लूम की ख़ुद-कलामी है। इसका एक इक़्तिबास भी चलें,

    ….I saw he understood or felt what a woman is and I knew I could get round him and I gave him all him all the pleasure I could leading him on till he asked me to say yes… and I thought well as well him as another and then I asked him with my eyes to to ask again yes and then he asked me would I yes to say yes my mountain flower and first I put my arms around him yes and drew him down to me so he could feel my brests all perfume yes and his heart was going like mad and yes I said yes I will yes.

    यहाँ वारदात का सारा लुत्फ़ ज़बान के फ़न-काराना इस्ति’माल से पैदा हुआ है और बयान के मद्धम-मद्धम नीम-रौशन उस्लूब ने अ’मल के तशद्दुद पर एक धुंद-सी फैला दी है। मंटो बाज़-औक़ात ज़बान का इस्ति’माल इस तरह करता है कि लफ़्ज़ दहकते हुए अँगारे बन जाते हैं। इस तरह उसके इज़हार की नौइ’यत भी ब-ज़ाहिर सादा होने के बावुजूद एक दुश्वार-तलब फ़न्नी आहंग रखती है। मगर मंटो की मीनाकारी ज्वाइस से बहुत मुख़्तलिफ़ है, चुनाँचे उसका रद्द-ए-अ’मल भी निस्बतन शदीद-तर हुआ। यूँ जवाइस की किताब को भी अदब की हैसियत से क़ुबूल करने पर लोग ख़ासी बेहस-ओ-तकरार के बा’द आमादा हुए थे और गंदी किताबों का कारोबार करने वाले उसे अव्वलन अपने काम का लिखने वाला समझ बैठे थे, लेकिन हिजाबात की गर्द छुटने के बा’द उसे अपने ही ज़हनी माहौल में अदब के बाग़ियाना और तज्ज़िया-पसंद मैलानात का सबसे बड़ा तर्जुमान कहा गया और उसकी किताब आवाँ-गार्द रवैये के अव्वलीन नुक़ूश में शुमार की लगी।

    मंटो के सिलसिले में भी ग़लत-फ़िक्रियों का शोर अब धीमा पड़ चुका है लेकिन उसे उसके हक़ीक़ी तनाज़ुर में देखने की रिवायत हमारे यहाँ अब तक आ’म नहीं हो सकी है। इसका सबब यही है कि अदब और फ़ह्हाशी के रवाबित और इम्तियाज़ात पर संजीदगी से ग़ौर करने की कोशिशें हमारे अदबी माहौल में भी सिर्फ़ मुस्तसनियात की हैसियत रखती हैं। सितम-ज़रीफ़ी ये है कि उर्दू बल्कि पूरे मशरिक़ की अदबी रिवायत में जिन्स के उं’सुर को कम-ओ-बेश एक मर्कज़ी मौज़ू’ के तौर पर बरता गया है।

    अ’सकरी ने इससे ये नतीजा निकाला था कि मशरिक़ की फ़िक्र हक़ीक़त के एक इंतिहाई बसीत और बे-कराँ तसव्वुर से वाबस्तगी के सबब हक़ीक़त को आ’ला और अस्फ़ल के ख़ानों में इस तरह तक़सीम नहीं करती कि दोनों एक दूसरे की ज़द दिखाई दें। इसके बर-अ’क्स वो ज़िंदगी के हर मज़हर को, उसकी सरिशत ख़ैर से इ’बारत हो या शर से, इंसानी तजरबात की एक ही ज़ंजीर का जुज़ समझती है और इस ज़िम्न में किसी भी तअस्सुब या तहफ़्फ़ुज़ को रूह नहीं रखती। मशरिक़ के क्लासिकी अदब में इस तअस्सुर की तस्दीक़ का सामान बहुत वाफ़िर है। मगर अम्र वाक़िआ’ के तौर पर कहना ग़लत न होगा कि ख़्वाह फ़िक्री सत्ह पर हमने इस हक़ीक़त को बहुत खुले दिल से क़ुबूल कर लिया हो, हमारा मुआ’शरा इस बाब में ख़ासा सख़्त-गीर रहा है और एक मुस्तक़िल सनविय्यत उसके मिज़ाज का हिस्सा रही है।

    आ’म लोग जिन्हें दुआ’ओं की बयाज़ में क़ुव्वत-ए-बाह और ईमसाक के नुस्ख़ों की मौजूदगी पर कभी ए’तिराज़ न हुआ, वही जिन्सी वारदात के इज़हार में एक तरह की दोशीज़गी को शराफ़त-ए-नफ़्स का शनास-नामा समझते रहे। मुतक़द्दिमीन को तो ख़ैर जाने दीजिए कि उनकी नस्र और नज़्म में हिजाबात का वजूद न होने के बराबर है और शे’र-ओ-अफ़साने के पर्दे में वो अच्छी तरह खुल-खेले हैं, मंटो के अ’हद तक हमारा मुआ’शरती माहौल इस मुआ’मले में ख़ासे दोग़ले-पन का शिकार रहा है। लज़्ज़त-केशी ने इस मुआ’शरे में एक मज़हबी क़द्र का रुत्बा पाया है और एक तहज़ीबी इम्तियाज़ की हैसियत भी उसे हासिल रही है मगर जिन्सी अ’मल के सिलसिले में गुनाह-पोशी या जुर्म की पर्दा-दारी का रवैया भी यहाँ ख़ासा आ’म रहा है। इस रवैया की समाजी इफ़ादियत मुसलल्म, फिर भी अदब में या तहज़ीबी फ़िक्र में इसकी बेजा मुदाख़िलतों ने न सिर्फ़ ये कि हमारे मुआ’शरे के अदबी तसव्वुरात को ज़र्ब लगाई है, सच्चाई की तलाश के बा’ज़ रास्ते भी हम पर बंद कर दिए हैं। हम ये भूल जाते हैं कि हर संजीदा और बा-मअ’नी फ़न्नी तख़्लीक़ बुनियादी तौर पर अख़्लाक़ी होती है, शायद अख़्लाक़ से ज़ियादा बा-अख़्लाक़, लेकिन फ़नकार का अख़्लाक़ी इदराक चूँकि रस्मी अख़्लाक़ियात को सदमा पहुँचाता है, इसलिए लोग उसे क़ुबूल करने से डरते हैं।

    और मंटो का तो मुस्तक़िल मशग़ला ही ये था। उसकी कहानियों के बा’ज़ इक़्तिबासात या चंद “ग़ैर-मुहतात” लफ़्ज़ों के इस्ति’माल की बुनियाद पर उन्हें फ़ुहश कहने वालों को अदब की जमालियात का ये बैन उसूल फ़रामोश न करना चाहिए कि मंटो की बेशतर कहानियाँ एक मुकम्मल वारदात की सूरत अपने इज़हार की हैअत का तअ’य्युन करती हैं। फिर जहाँ तक ग़ैर-मुहतात और ग़ैर-सिक़ा लफ़्ज़ों के इस्ति’माल का तअ’ल्लुक़ है इस ज़िम्न में ‘फ़ैनी हिल’ के मुसन्निफ़ का ये क़ौल भी एक सच्चाई का इज़हार है कि मैं शर्त बांध कर फ़ुहश-तरीन किताब इस तरह लिख सकता हूँ जिसमें एक भी फ़ुहश लफ़्ज़ इस्ति’माल न किया गया हो। इससे क़त’-ए-नज़र किसी लफ़्ज़ के फ़ुहश या ग़ैर-फ़ुहश होने की बुनियादें क्या हैं? मुआ’शरती हिजाबात या उस लफ़्ज़ से पैदा होने वाली कैफ़ियत और फ़नपारे के मजमूई’ तअस्सुर की तशकील में उस कैफ़ियत का अ’मल? ज़ाहिर है कि इस सिलसिले में कोई भी अदीब इन मेया’रों को अपना रहनुमा नहीं बना सकता जिनकी असास सिर्फ़ मुरव्वजा मुहावरे पर क़ाइम हो। चासर और शेक्सपियर ने तो ये तक कहा था कि,

    To gain the language

    Tis needful that the most immodest word

    Be looked upon and learnt.

    Henry 4 (Part 2)

    अब अगर इस बाब में उन्होंने मुआ’शरे के जब्र को क़ुबूल कर लिया होता तो नताइज किस दर्जा इ’बरत-नाक होते। इसका अंदाज़ा हम सिर्फ़ इस वाक़िए’ से लगा सकते हैं कि अमरीकी प्योरिटिज़्म के ज़ेर-ए-असर उन्नीसवीं सदी के निस्फ़ तक वहाँ ये हाल रहा कि ख़वातीन की मौजूदगी में ज़बान पर Legs का लफ़्ज़ लाना भी मा’यूब समझा जाता था। एक सय्याह की डायरी में तो ये लतीफ़ा भी मिलता है कि उस ज़माने में किसी दा’वत के मौक़े’ पर एक ख़ातून ने मुर्ग़ की टांग तलब की तो अपना मा-फ़िज़्ज़मीर मुर्ग़ के First & Second Joints कह कर अदा किया। ख़ैर ये तो आ’म लोगों का हाल था, लुग़ात तरतीब देने वाले भी अपनी किताब में फ़ुहश अल्फ़ाज़ की शुमूलियत से डरते थे। इस एहतिसाब-ज़दगी के नतीजे में अदब जिन्सी वारदात के बयान से तो किसी न किसी हद तक महफ़ूज़ हो गया मगर उसकी जगह तशद्दुद-आमेज़ क़िस्सों की मक़बूलियत ने ले ली। फोड़े को अगर मस्नूई’ तौर पर दबाने की कोशिश की जाए तो ज़हर सारे जिस्म में फैल सकता है। चुनाँचे मौजूदा अमरीकी मुआ’शरे की सूरत-ए-हाल सामने है। यहाँ मैं जिन्स और तशद्दुद के बाहमी रिश्तों के मसअले में नहीं उलझना चाहता कि ये काम माहिरीन-ए-नफ़सियात का है, लेकिन अदब के एक आ’म क़ारी की हैसियत से हम ये जानते हैं कि अदीब का काम न तो जिबिल्लतों की पसपाई है, न किसी ऐसे जज़्बे के इज़हार पर रोक लगाना जो उसके तजरबे में शामिल हो और जिसकी बुनियाद पर वो किसी फ़नपारे की तख़्लीक़ का दबाव महसूस कर रहा हो।

    फिर मंटो ने हर कहानी में न तो आप-बीती बयान की है, न ही उसने अपनी तख़्लीक़ी ज़िंदगी का मक़सद जिन्स या फ़ह्हाशी के किसी तसव्वुर की इशाअ’त को क़रार दिया था। वो तो इस ख़ुश-गुमानी में भी मुब्तला नज़र नहीं आता जो इस क़बील के बा’ज़ लिखने वालों के यहाँ ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा हो जाती है, या’नी कि उसे ये ख़ब्त भी नहीं रहा कि वो हैनरी मिलर की तरह समाजी जब्र से नजात या हवास की आज़ादी का कोई दस्तूर-उल-अ’मल तरतीब दे रहा है। उसे ये एहसास ज़रूर था कि वो झूट बोलने के हुनर से ना-वाक़िफ़ है। लेकिन वो उस झूट का कभी भी मुनकिर न हुआ जो फ़न्नी हक़ीक़त-निगारी के ख़मीर का लाज़िमी हिस्सा होता है। ‘गंजे फ़रिश्ते’ के इख़्तितामिए में उसने लिखा था कि मेरे इस्लाह-ख़ाने में कोई शाना नहीं, कोई शैंपू नहीं, कोई घूंघर पैदा करने वाली मशीन नहीं। मैं बनाव-सिंघार करना नहीं जानता इस किताब में जो फ़रिश्ता भी आया है इसका मूंडन हुआ है और ये रस्म मैंने बड़े सलीक़े से अदा की है।

    दिलचस्प बात ये है कि मंटो ने इस रस्म-अदायगी में आप अपनी ज़ात को भी नज़र-अंदाज नहीं किया है और बारह गंजे फ़रिश्तों के साथ उसमें एक और गंजा फ़रिश्ता ख़ुद मंटो है। वो न दूसरों से झूट बोल सकता था, न अपने आपसे, चुनाँचे अपनी कहानियों में भी उसने झूट को सिर्फ़ इस हद तक रवा रखा है जिसका बार ये कहानियाँ उठा सकें।

    अलमिया ये है कि इंसान सबसे ज़ियादा झूट का आ’दी जिन्सी मुआ’मलात के बयान में होता है। हैनरी मिलर के एक नक़्क़ाद ने कहा था, हैनरी मिलर पर क़ानूनी एहतिसाब इसलिए आयद हुआ कि उसका एहतिसाब करने वाले उसकी बातों में यक़ीन भी रखते थे और ये जानते थे कि वो सच बोल रहा है। मंटो के साथ भी मुआ’मले की नौइ’यत कम-ओ-बेश यही रही है। उसके सख़्त-तरीन नक़्क़ाद ने भी अब तक ये कहने की जसारत नहीं की है कि मंटो का तख़य्युल इंसानी तजरबात की जिन दुनियाओं का सफ़री है, वो महज़ वाहिमा या एक बिगड़े हुए ज़हन की पैदा-वार हैं। चुनाँचे हर सच्चाई उसके इज़हार की गिरफ़्त में आने के बा’द अपने तअस्सुर की तमाम जिहतों का तहफ़्फ़ुज़ करती है। उसकी कहानी अपने बयान की तफ़्सीलात के बजाए अपने मजमूई’ तअस्सुर बल्कि उस तअस्सुर के नुक़्ता-ए-इर्तिकाज़ की वसातत से क़ारी के हवास पर वारिद होती है, चुनाँचे मंटो को हम उस क़िस्म का दिलचस्प लिखने वाला नहीं कह सकते जिसकी मिसाल हैनरी मिलर है।

    हैनरी मिलर के बयान में अदबियत का उं’सुर इस हद तक ग़ालिब है कि कभी-कभी ज़हन उसके तजरबे के बजाए तजरबे की मैकानिकी तरतीब और उसकी लिसानी हैअत के ख़म-ओ-पेच में उलझ जाता है, हर-चंद कि मिलर ब-ज़ो’म-ए-ख़ुद हमेशा इस फ़रेब में मुब्तला रहा कि रिवायती मा’नों में वो अदीब नहीं है और उसका अस्ल कारनामा अदब और ज़िंदगी से वाबस्ता दूसरी मुरव्वजा क़द्रों के ख़िलाफ़ एक फ़िक्री और जज़्बाती बग़ावत है। उसने अपनी किताबों को ख़ुदा, मुक़द्दर, ज़माँ, इश्क़-ए-हुस्न और फ़न, इन सबके लिए एक तोहमत, एक रुस्वाई, एक गंदी गाली और हिक़ारत की एक ठोकर से ता’बीर किया था। इस तर्ज़-ए-फ़िक्र के शाख़साने अंजाम-ए-कार मिलर की अख़्लाक़ियात ही से जा मिलते हैं।

    मंटो ने अपनी कहानियों में बयान का जो पैराया इख़्तियार किया है, उसे भी हम एक नौ’ के अख़्लाक़ी इंतिख़ाब का नतीजा कह सकते हैं, ख़ास तौर पर इसलिए भी कि मंटो का खुला-डुला उस्लूब उसकी ख़तरनाक हद तक बे-हिजाब और बे-रिया शख़्सियत ही का अ’क्स है। मंटो ने जिन ख़ुतूत पर अपनी शख़्सियत की पर्दाख़्त की थी, कम-ओ-बेश उन्ही के मुताबिक़ अपने तख़्लीक़ी इज़हार की हैअतों का तअ’य्युन भी किया। इस अ’मल में मंटो की अपनी ज़ात के साथ-साथ उसके अ’हद का बदलता हुआ ज़हनी माहौल भी बराबर का शरीक है। मंटो ने सिर्फ़ अपने मुल्क, अपनी क़ौम, अपने दीनी अ’क़ाइद और अपने मख़्सूस समाजी ईक़ानात या फ़िर्कावाराना तहफ़्फुज़ात को अपने तख़्लीक़ी शऊ’र का पस-ए-मंज़र नहीं बनाया। वो ज़माँ के एक तग़य्युर-पज़ीर और मुतहर्रिक और मौजूद दायरे की रोशनी में अपने शऊ’र की तरबियत का सामान इक्ट्ठा करता है। इसलिए मंटो को सिर्फ़ उसकी अपनी अदबी या क़ौमी या तहज़ीबी रिवायत की मीज़ान पर जाँचने के नताइज का ग़लत और नाक़िस ठहरना फ़ितरी था।

    (6)
    “पाकिस्तान के मुरव्वजा अख़्लाक़ी मेया’र क़ुरान-ए-पाक की ता’लीम के हवाले से बहुत सही तौर पर मा’लूम हो सकते हैं। कहा जा सकता है कि ग़ैर-शाइस्तगी, शहवानियत, नफ़्स-परस्ती और सूक़ियाना-पन ज़िंदगी में मौजूद है। अगर अदबी मज़ाक़ के इस मेया’र को तस्लीम कर लिया जाए जिसे सफ़ाई के गवाहों ने बयान किया है, तो ज़िंदगी के पहलुओं का हक़ीक़त-निगाराना इज़हार अच्छा अदब हो सकता है, लेकिन फिर भी ये हमारे मुआ’शरे के अख़्लाक़ी मेया’र की ख़िलाफ़-वर्ज़ी करेगा।”

    “कहानी ब-उ’नवान-ए-‘ठंडा गोश्त’ को ग़ौर से पढ़ने के बा’द मुझे इत्मीनान हो गया है कि इसमें क़ारईन का अख़्लाक़ी मेया’र बिगाड़ने का मैलान मौजूद है और ये हमारे मुल्क के मुरव्वजा अख़्लाक़ी मेया’रों की ख़िलाफ़-वर्ज़ी करती है। इसलिए मैं मुल्ज़िम सआदत हसन मंटो को एक फ़ुहश तहरीर पेश करने का ज़िम्मेदार ठहराता हूँ और उसे ज़ेर-ए-दफ़ा 292, पी. सी. तीन माह क़ैद-ए-बा-मशक़क़्त और तीन सौ रुपये जुर्माने की सज़ा देता हूँ। अ’दम-ए-अदाइगी-ए-जुर्माना की सूरत में उसको मज़ीद इक्कीस यौम की सज़ा भुगतनी पड़ेगी।

    ए. ऐम. सईद
    मजिस्ट्रेट दर्जा अव्वल, लाहौर”

    ये इक़्तिबास ‘ठंडा गोश्त’ पर मुक़द्दमे के फ़ैसले से माख़ूज़ है और इस पर 16 जनवरी 1950 की तारीख़ सब्त है। ये तारीख़ 16 जनवरी 1980 भी हो सकती थी (और सज़ा में सौ कोड़ों का इज़ाफ़ा भी हो सकता था) अदब में फ़ह्हाशी के तसव्वुर की तरफ़ महज़ आ’म तहज़ीबी और फ़िक्री सत्ह पर रवय्यों की तब्दीली काफ़ी नहीं ता-वक़्तिया के क़ानून की दफ़आ’त पर भी ज़िंदगी के असालीब और अक़दार में ज़माने के साथ-साथ रू-नमा होने वाली तब्दीलियों ने बराह-ए-रास्त असर न डाला हो। ये बात अनहोनी नहीं है मगर सिर्फ़ उन मुआ’शरों के लिए जिनकी इज्तिमाई बसीरत तब्दीलियों के अ’मल से गुज़रने की सलाहियत रखती है और इंसानी तजरबात की किसी मुअ’य्यना हैअत को हर ज़माने के लिए यकसाँ और तग़य्युरात से मावरा नहीं समझती। चुनाँचे दुनिया के बेशतर ममालिक जिनका मुआ’शरती निज़ाम इर्तिक़ा पज़ीर रहा है, फ़ितरत के इस आ’म उसूल को तस्लीम करते आए हैं कि ज़िंदगी की ख़ारिजी सम्त-ओ-रफ़्तार का असर मुआ’शरे की दाख़िली तंज़ीम पर भी पड़ता है और हर ज़माना अपने अक़दार-ओ-अफ़्क़ार का ढांचा अपनी नफ़सियाती सूरत-ए-हाल, उस सूरत-ए-हाल के ज़ाईदा जब्र और उस जब्र के साये में नुमू-पज़ीर होने वाली अख़्लाक़ी सरिश्त के मुताबिक़ तैयार करता है।

    लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ज़माना आगे बढ़ जाता है मगर क़वी और मुल्की क़वानीन की सत्ह में इर्तिआ’श के आसार यकसर मफ़क़ूद होते हैं। मंटो अपनी तख़्लीक़ात के सिलसिले में पाकिस्तान के मौजूदा क़वानीन और अख़्लाक़ी ज़ाब्तों की रोशनी में किन मुक़द्दरात की आज़माइश से गुज़रना पड़ता, ये सोच कर आज हम काँप-काँप जाते हैं। एक ज़माने में वॉल्ट व्हिटमन को अपने अ’हद के फ़ुहश-तरीन दरिंदे का लक़ब दिया गया था। अ’र्सा हुआ मंटो का ज़िक्र करते हुए एक तरक़्क़ी-पसंद नक़्क़ाद ने कहा कि, मंटो जैसे ग़लाज़त-निगार गोर्की के रूस में भी पैदा हुए थे। लेकिन आज, दोस्तोएफ़्सकी की हैसियत रूसी अदब के शायद सबसे बड़े सरमाया-ए-इफ़्तिख़ार की है और ख़ुद तरक़्क़ी-पसंद तन्क़ीद ने मंटो से हार मान ली है। कुछ अ’र्सा पहले तक अमरीका के बा’ज़ कुतुब-ख़ानों में ज्वाइस किताब A Portrait of the Artist as a young Man उस कमरे में मुक़फ़्फ़ल कर के रखी जाती थी जहाँ ख़तरनाक क़िस्म का मवाद ढेर कर दिया जाता था कि आ’म लोगों तक उसके जरासीम न पहुँच सकें।

    कहीं-कहीं इस रस्म का चलन भी था कि मशहूर मुसव्विरों की बनाई हुई बरहना औ’रतों की तसावीर में उ’र्यानी का तअस्सुर पैदा करने वाले मुक़ामात काग़ज़ की कतरनों या कुतुब ख़ाने की मोहरों से छिपा दिए जाते थे (जापानी कि एक मक़सद-परस्त क़ौम हैं, ये रस्म अब तक निभाए जा रहे हैं, इस एहसास से यकसर बे-नियाज़ कि उ’र्यानी को छिपाने का ये तरीक़ा उसे और ज़ियादा नुमायाँ कर देता है।) इश्तिराकी ममालिक में बुर्ज़ुवा ममालिक के मुसन्निफ़ीन की ऐसी किताबें जिनसे इश्तिराकी तसव्वुरात या मक़ासिद पर ज़र्ब पड़ती है, अक्सर फ़ुहश क़रार दी जाती हैं।

    नफ़सियात के एक आ’लिम का क़ौल है कि संजीदा मक़सद रखने वाली मगर आ’म अख़्लाक़ियात की डगर से हटी हुई किताबों को फ़ुहश कहने वाले अक्सर अधेड़ उ’म्र के बदकार अश्ख़ास होते हैं जिनके नज़दीक फ़ुहश तहरीरें जिन्सी जज़्बे को मुश्तइ’ल करने के सामान से मुमासिल होती हैं। इस नज़रिए की सेहत और अ’दम-सेहत पर बेहस नफ़सियात एजेंसी के माहिरीन का मैदान है, ताहम संजीदा फ़िक्शन के बारे में ये ख़याल ग़लत नहीं कि अपने अख़्लाक़ी मुतालिबात की तकमील के लिए इस नौ’ की तख़्लीक़ात में नफ़ी का एक उं’सुर लाज़िमे की हैसियत रखता है। इस नफ़ी की ज़र्बें मुरव्वजा रवायात, मुसल्लमात, अक़दार, अ’क़ाइद, तअस्सुबात और ईक़ानात, इन सब पर पड़ती हैं।

    मंटो ने कहा था, “अदब दर्जा-ए-हरारत है अपने मुल्क का, अपनी क़ौम का... अदब अपने मुल्क, अपनी क़ौम की अ’लालत की ख़बर देता रहता है। पुरानी अलमारी के किसी ख़ाने में हाथ बढ़ा कर कोई गर्द-आलूद किताब उठाइए, बीते हुए ज़माने की नब्ज़ आपकी उँगलियों के नीचे धड़कने लगेगी।” इसी मज़्मून (कसौटी) में उसने ये भी कहा था कि, “ये ज़माना नए दौरों और नई टीसों का ज़माना है। एक नया दौर पुराने दौर का पेट चीर कर पैदा किया जा रहा है। पुराना दौर मौत के सदमे से दो-चार है। नया दौर ज़िंदगी की ख़ुशी से चिल्ला रहा है। दोनों के गले रुँधे पड़े हैं। दोनों की आँखें नमनाक हैं। इस नमी में अपने क़लम डुबो कर लिखने वाले लिख रहे हैं।”

    अदब के ता’मीरी तसव्वुर पर जान देने वाला (इस्तिलाहन) नक़्क़ाद पलट कर ये पूछ सकता है कि अदब आख़िर अ’लालत ही की ख़बर क्यों देता है? आख़िर अदब के दस्तर-ख़्वान पर सेहत-अफ़्ज़ा ने’मतों की भी कमी नहीं है और अपनी इफ़ादियत के ए’तिबार से ये ने’मतें दवाओं की मिसाल हैं। मंटो के नज़दीक ऐसी दवाओं के इस्ति’माल का जवाज़ एक तरह का अख़्लाक़ी क़ब्ज़ फ़राहम करता है। फिर उसे तो हमेशा इस बात पर इसरार रहा है कि अदीब का मंसब दवा-ख़ाने के एहतिमाम-ओ-इंसिराम से बाला-तर है। ख़ुद को मुआ’लिज समझने का मतलब सरीहन ये है कि दूसरों को मरीज़ समझा जाए। मंटो अपने मुआ’शरे के अमराज़ का शऊ’र तो रखता है मगर इस तरह कि आप अपनी ज़ात को भी उसके आलाम से अलग तसव्वुर नहीं करता। इसी के साथ-साथ वो ये भी जानता है कि ब-हैसियत-ए-अदीब मुआ’शरे को उसके अमराज़ का एहसास दिलाकर वो झिंझोड़ तो सकता है लेकिन इ’लाज के मुआ’मले में वो एक हक़ीक़त-आफ़रीं बेबसी का शिकार भी है। मुआ’शरे के नज़्म-ओ-नसक़ और ता’मीर-ओ-तरक़्क़ी की बागडोर जिन हाथों में है वो उसके हाथों से ज़ियादा ताक़तवर हैं। ऐसा न होता तो इंसानी मुआ’शरा अपने दुखों के जंजाल से कब का आज़ाद हो चुका होता। उसे इन अमराज़ से नफ़रत है क्योंकि उनकी हलाकत से वो आ’म इंसानों की ब-निस्बत बहुत ज़ियादा वाक़िफ़ है।

    उसका इंसानी वजूद की मुख़्तलिफ़ सत्हों और जिहतों का शऊ’र भी आ’म इंसानों की ब-निस्बत ज़ियादा गहरा और मरबूत है। इसीलिए बुरे से बुरे इंसान की तरफ़ भी उसका रवैया मुसावात का है और वो इस बात पर अफ़्सुर्दा है कि उसके मुआ’शरे ने दुखों का जो बार उठा रखा है, उससे ख़ुद उसके शाने भी दबे जा रहे हैं। सो मंटो का तख़्लीक़ी किरदार अपनी ज़िल्लत के एहसास से उभरा है। उसने अँधेरे को अँधेरे के तौर पर देखा और इस ग़िलाफ़ से कुछ चिंगारियाँ ढूँढ निकालीं, जो वजूद को झुटलाए बग़ैर रोशनी की तलाश का पता देती हैं। मंटो के मुआ’शरे की अख़्लाक़ी बुनियादें अभी इस दर्जा उस्तुवार नहीं थीं कि उन हक़ीक़तों की ताब भी ला सकतीं जो निशात-आफ़रीं नहीं हैं। फिर उसका क़ुसूर ये भी था कि उसने उम्मीद-पेशगी के दौर में अपने तरक़्क़ी-पसंद मुआ’सिरीन की तरह इंसान की अ’ज़्मत और उम्मीद के राग क्यों नहीं अलापे। मंटो ने सिर्फ़ सच्चाई की अ’ज़्मत पर तकिया किया और उन अज़ीयतों को एक क़द्र जाना जिनके अंखुए सच्चाई की शाख़ से फूटते हैं।

    ‘ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ’ में मंटो ने आ’लमी अदब के कई हवालों से अपने मुक़द्दमात की तस्दीक़ के लिए नकात अख़ज़ किए हैं। ‘मादाम बोवारी’ पर फ़ह्हाशी के मुक़द्दमे का ज़िक्र करते हुए उसने वकील-ए-सफ़ाई की बेहस का एक इक़्तिबास भी नक़्ल किया है। इक़्तिबास यूँ है, ‘हज़रात ये किताब जो ब-क़ौल वकील-ए-इस्तिग़ासा शहवानी जज़्बात को भड़काती है मोसियो फ़्लाबेयर के वसीअ’ मुताले’ और ग़ौर-ओ-फ़िक्र का नतीजा है। उसने अपनी तवज्जोह मतीन फ़ितरत की वसातत से ऐसे ही मतीन और मलूल मज़ामीन की तरह मुनातिफ़ की है। वो ऐसा आदमी नहीं है जिसके ख़िलाफ़ वकील-ए-इस्तिग़ासा ने हैजान-ख़ेज तस्वीरों की नक़्क़ाशी के इल्ज़ाम में जगह-जगह अपनी तक़रीरों में ज़हर उगला है। मैं फिर दोहराता हूँ कि फ़्लाबेयर की फ़ितरत में बे-इंतिहा संगीनी, शदीद संजीदगी और बे-पनाह मलाल भरा पड़ा है।’

    मंटो ने इस इक़्तिबास के साथ ये दा’वा नहीं किया कि वो ख़ुद फ़्लाबेयर के पाए का अदीब है। उसके यहाँ कमतर सत्ह पर सही मगर अल्फ़ाज़ की वही किफ़ायत, जज़्बे का वही इंज़िबात, जुज़इयात के बयान में वही अर्ज़ियत और नुक़्ता-ए-नज़र के इज़हार में वही मा’रूज़ियत मिलती है जिससे फ़्लाबेयर की तहरीरें पहचानी जाती हैं। मंटो ने बस रवैये की मुमासिलत पर ज़ोर दिया है, इन अल्फ़ाज़ में कि ‘ठंडा गोश्त’ में फ़्लाबेयर की फ़ितरत की बे-इंतिहा संगीनी और शदीद संजीदगी शायद न हो लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ये बेपनाह मलाल से भरा पड़ा है। इस मलाल का इज़हार अशर सिंह के किरदार की बे-साख़्ता दर्द-मंदी से भी होता है और कहानी के इख़्तिताम से फूट निकलने वाली कैफ़ियत से भी। इससे पहले अशर सिंह और कुलवंत कौर की बाहमी छेड़-छाड़ और मुआ’मला-बंदी का जो मंज़र मंटो ने पेश किया है वो अपनी शोख़ रंगी के सबब तज़ाद की फ़िज़ा पैदा करता है, चुनाँचे मलाल का तअस्सुर किसी जज़्बाती मुबालग़े के बग़ैर वाक़िए’ की सत्ह से ख़ुद-ब-ख़ुद रू-नुमा हुआ है।

    मंटो की ‘फ़ुहश बयानी’ को इसके सियाक़ में देखा जाए तो वो एक नौ’ की फ़न्नी ज़रूरत बन जाती है और उसका मफ़हूम वो कुछ नहीं रह जाता जिस पर उसके मुहतसिबीन या मो’तरिज़ीना ने अपनी अख़्लाक़ियात के मिसरे’ लगाए हैं। जैसा कि ऊपर अ’र्ज़ किया गया है, मंटो के उस्लूब में फ़्लाबेयर की सी शाइस्तगी और मुलाइम तो नहीं, फिर भी उसका रवैया कारोबारी ज़हनियत रखने वाले फ़ुहश-निगारों से यकसर मुख़्तलिफ़ है। वो अपनी शोख़-बयानी से क़ारी के सुफ़्ला जज़्बात को हवा नहीं देता, न मुब्तज़िल रवय्यों के बाज़ार में तअ’य्युश के वसीले फ़राहम करने वाली लफ़्ज़ी तस्वीरों के ढेर सजाता है। ग़ैर-तरबियत-याफ़्ता क़ारी अगर इससे ग़लत नताइज अख़ज़ करता है तो इसका सबब क़ारी की अपनी मा’ज़ूरियों से क़त’-ए-नज़र ये भी है कि इसमें क़ुसूर क़ारी की फ़हम का है। उसके उस्लूब के खुरदुरेपन से मुतरश्शेह होने वाला बहीमाना तअस्सुर भी क़ारी की ग़लत-गुमानियों को तक़वियत पहुँचाता है।

    मंटो का उस्लूब उसके किरदारों की तरह अपने बातिन का गुदाज़ बैरूनी सत्ह की दुरुश्तगी के नीचे छुपाए रखता है। आ’म पढ़ने वाले की नज़र मज़ाहिर में उलझ कर रह जाती है, चुनाँचे उनके पर्दे में मख़्फ़ी हक़ीक़त तक रसाई मुम्किन नहीं होती। लौरेंस ने ‘लेडी चैटरलीज़ लवर’ का दिफ़ा’ करते हुए कहा था कि तमाम-तर जारिहियत के बावुजूद मैं इस नावल को एक दियानत-दार, सेहत-मंद किताब कहता हूँ जो आज के मुआ’शरे के लिए ज़रूरी है। वो अल्फ़ाज़ जो अव्वल-अव्वल पढ़ने वाले को इस दर्जा चौंकाते हैं, चंद लम्हों बा’द इस सलाहियत से आ’री दिखाई देते हैं। वज्ह ये है कि उन लफ़्ज़ों ने सिर्फ़ आँखों को चौंकाया था, ज़हन को नहीं। शऊ’र से बहर-आवर अश्ख़ास ये जानते हैं कि इन लफ़्ज़ों ने उन्हें चौंकाया नहीं था। इसके बर-अ’क्स उन्हें एक तरह के सुकून का एहसास होता है।

    मंटो का उस्लूब पढ़ने वाले को इस्तिजाब और इश्तिआ’ल दोनों का तजरबा बख़्शता है मगर इसके अस्बाब का तअ’ल्लुक़ कहानियों की ख़ारिजी हैअत से ज़ियादा वाक़िआ’त की अनोखी तरबियत और उनके ग़ैर-मुतवक़्क़े’ इख़्तिताम से है। फिर लौरेंस के बर-अ’क्स मंटो क़ारी को जज़्बात के तज़्किए का हुनर नहीं बताता बल्कि उसे ज़हनी और हिस्सी इज़तिराब की एक देर-पा और पुर-पेच कैफ़ियत से दो-चार करता है। ये कैफ़ियत अदब के संजीदा क़ारी के लिए एक लंबी जाँ-गुदाज़ जुस्तजू का सिला होती है, आ’म लोगों के लिए सिर्फ़ घबराहट और सच्चाई को हल्क़ से नीचे न उतार सकने की कोफ़्त का सामान। अ’सकरी ने इस क़बील के पढ़ने वालों के लिए एक सवालिया निशान मुक़र्रर किया है, ये कि,

    “अगर हमें झिंझोड़ कर जगाने के बा’द मंटो ने हमें इंसानी फ़ितरत और इंसानी मुआ’शरे का कोई तमाशा नहीं दिखाया, अगर उसने हमारे अंदर ज़िंदगी का कोई नया शऊ’र पैदा नहीं किया तो फिर हम उसे गालियाँ देने में हक़-ब-जानिब होंगे कि उसने हमें चैन से सोने भी न दिया। जो लोग किसी क़ीमत पर जागना ही नहीं चाहते उन्हें तो उनके हाल पर छोड़िए, लेकिन क्या आप ‘नया क़ानून’, ‘हतक’ या ‘बाबू गोपी नाथ’ जैसे अफ़साने पढ़ कर दियानत-दारी के साथ कह सकते हैं कि मंटो ने हमें चौंका कर मुफ़्त में हमारी नींद ख़राब की।”

    ये एक इंतिहाई मुश्किल सवाल है, ख़ास तौर पर उन लोगों के लिए जो तबीअ’त के यकसिरे-पन और हट-धर्मी को किरदार की इस्तिक़ामत से ता’बीर करते हैं। और हममें से अक्सर लोगों के मिज़ाज का तौर यही होता है। हक़ीक़त का ग़लत या सही जैसा भी तसव्वुर हम एक बार क़ाइम कर लेते हैं, उसे आसानी से बदलने पर आमादा नहीं होते। और मंटो का तो मशग़ला ही ये था। उसके एहसास की ज़मीन से मस होने के बा’द हक़ीक़तें भी तब्दील होती हैं और उनको देखने और समझने के ज़ाविए भी। लेकिन समाजी क़वानीन की परवरिश जिन हक़ीक़तों की ग़िज़ा पर होती है, उनका आब-ओ-रंग कम-ओ-बेश हमेशा यकसाँ रहता है। ये हक़ीक़तें बरस-हा-बरस की आज़मूदा होती हैं, राइज तसव्वुरात और वाहिमों की परवर्दा। इनका तअ’ल्लुक़ ज़माँ के उस मिंतक़े से होता है जो माज़ी है, या’नी कि ज़िंदा तजरबात की ज़र्ब से यकसर महफ़ूज़ और बदलती हुई सच्चाइयों के अ’मल-दख़्ल से यकसर बे-नियाज़। गुरेज़-पाई की सऊ’बतें सिर्फ़ हाल उठाता है, चुनाँचे उसकी बिसात पर हर लम्हा हक़ीक़तें बनती और बिगड़ती रहती हैं। ‘ऊपर, नीचे और दरमियान’ के मुक़द्दमे का फ़ैसला करने वाले मजिस्ट्रेट ने कहा था,

    “क़ानून ये नहीं चाहता कि अदब अपने तक़ाज़ों को या मक़ासिद को पूरा न करे। क़ानून यही चाहता है कि इन मक़ासिद को इंसान के लिए मुफ़ीद होना चाहिए। अगर मक़सद मुफ़ीद न हो, या’नी ख़ाली शहवानी जज़्बात को बर-अंगेख़्ता करना मक़सूद तो न हो, मगर मौज़ू’ और अल्फ़ाज़ ऐसे हों जिनसे कमज़ोर मरीज़ या ना-पुख़्ता ज़हन शहवानी लज़्ज़त-कुशी में मुब्तला हो जाएँ तो क़ानून उस इ’बारत को ग़ैर-मुफ़ीद और फ़ुहश क़रार देता है।”

    ये लतीफ़ा भी ‘शे’र मरा ब-मुदर्रिसा के बुर्द’ के मिस्दाक़ है। क़ानून की नज़र में अदब की अ’दम-इफ़ादियत और फ़ुहश-निगारी मुतरादिफ़ात हैं। इश्तिराकी क़वानीन की नज़र में हर वो तहरीर फ़ुहश है जो इश्तिराकी मुआ’शरे के नसब-उल-ऐ’न से हम-आहंग न हो। कैथोलिक हुकूमतों ने उन किताबों और मुसन्निफ़ीन को फ़ुहश जाना जो कलीसा के आयद-कर्दा अख़्लाक़ी मेया’र और ज़ाब्तों की ख़िलाफ़-वर्ज़ी के मुर्तक़िब हुए हों। बौदलियर उन्नीसवीं सदी के फ़्रांस के लिए फ़ुहश है, बीसवीं सदी तक आते आते वो इंसानी तजरबे की बई’द-तरीन सरहदों का मुख़्बिर बन गया। नज़रिए, अख़्लाक़ और समाजी तहफ़्फुज़ात की सियासत जब जमालियात की भूल-भुलय्याँ में क़दम रखती है तो इससे ऐसे ही लताइफ़ सरज़द होते हैं। मंटो ने ‘पस-ए-मंज़र’ में इसी रवैये को तंज़ का निशाना बनाया है,

    “ये जितने अदीब और शाइ’र बने फिरते हैं, अब उनको चाहिए कि होश में आएँ और कोई शरीफ़ाना पेशा इख़्तियार करें

    लीडर बन जाएँ...

    सिर्फ़ मुस्लिम लीग के

    जी हाँ मेरा मतलब यही था, किसी और लीग का लीडर बनना फ़ुहश है

    बेहद फ़ुहश...”

    ये अदब के मुआ’मले में रवैये की फ़ह्हाशी का एक और नमूना है। इंसानी मुआ’शरे की रंगा-रंगी के लिए अहमक़ों का वजूद ना-गुज़ीर सही मगर ये लतीफ़ा मुसीबत उस वक़्त बन जाता है जब संजीदा मसाइल पर इज़हार-ए-ख़याल और फ़ैसले के इख़्तियारात की बागडोर भी उनके हाथों में आ जाती है। ये सही है कि क़वानीन की तशकील आ’म इंसानों के अ’मल और रद्द-ए-अ’मल की बुनियादों पर की जाती है लेकिन अदब या फ़नून लतीफ़ा से मुतअ’ल्लिक़ मसाइल बहर-सूरत अ’वामुन्नास के मसाइल नहीं हैं। ये मसाइल अपनी तफ़हीम के लिए चंद मख़सूस शराइत मुक़र्रर करते हैं और क़ारी से शऊ’र की एक अलग सत्ह के तालिब होते हैं, मगर इंसानी मुआ’शरे और और उससे वाबस्ता क़वानीन की तरतीब जिन ख़ुतूत पर हुई है, उनकी तई’न में आ’म इंसानों का अ’मल-दख़्ल इस हद तक रहा है कि इंसानी हवास के नाज़ुक-तरीन इर्तिआ’शात की दुनिया भी उनके इख़्तियारात से आज़ाद नहीं रह सकी है। ‘यूलीसस’ के मुक़द्दमे के फ़ैसले में ये अल्फ़ाज़ भी शामिल थे,

    “एक ख़ास किताब ऐसे (शहवानी) जज़्बात और ख़यालात पैदा कर सकती है या नहीं, इसका फ़ैसला अ’दालत की राय में ये देखकर होगा कि औसत दर्जे की जिन्सी जिबिल्लतें रखने वाले आदमी पर उसका क्या असर होता है, ऐसे आदमी पर जिसे फ़्रांसीसी ‘मा’मूली क़िस्म की हिसिय्यात रखने वाला इंसान’ कहते हैं और जिसकी हैसियत क़ानूनी तफ़तीश की इस शाख़ में एक फ़र्ज़ी आ’मिल की होती है जैसे ख़फ़ीफ़ा के मुक़द्दमों मैं ‘समझ बूझ वाले आदमी’ की हैसियत होती है या रजिस्ट्रेशन के क़ानून में ईजाद के मसअले के मुतअ’ल्लिक़ फ़न के माहिर की।”

    या’नी ये कि किसी मशीन के अ’मल को समझने के लिए तो हम इस शो’बे के माहिर से रुजू’ करने पर मजबूर होंगे मगर अदब के मुआ’मलात में हरकिस-ओ-नाकिस की राय अहम हो सकती है। उन ज़मानों में जब अदब और फ़ुनून-ए-लतीफ़ा को एक आ’म तहज़ीबी क़द्र की हैसियत हासिल थी और इख़्तिसास के क़हर से इंसानी मुआ’शरा महफ़ूज़ था, इस तर्ज़-ए-फ़िक्र की मा’क़ूलियत का जवाज़ मुहय्या किया जा सकता है। मंटो ने अपनी कहानियों का मवाद आ’म ज़िंदगी के ज़ख़ीरों और आ’म इंसानों के तजरबात से हासिल किया था मगर वो किरदार जिनकी वसातत से उसने ज़िंदगी की ज़ुहरा-गुदाज़ हक़ीक़तों का सुराग़ लगाया, उसके क़ारी नहीं थे। मंटो ने आग़ा हश्र की तरह अपनी तहरीरें ताँगे वालों को नहीं सुनाईं कि आ’म इंसानों के रद्द-ए-अ’मल का अंदाज़ा कर के वो उनकी कमर्शियल हैसियत का तअ’य्युन कर सके। वो तो उ’म्र-भर इस ईक़ान को सीने से लगाए रहा कि कहानियाँ लिखना उसके लिए सिर्फ़ पेशा नहीं एक दाख़िली ज़रूरत का जब्र है। वो इसलिए लिखता है कि उसे कुछ कहना होता है।

    ज़िंदगी में मअ’नी की तलाश से पहले ज़रूरी है कि ख़ुद अपने रवैये के मअ’नी मुतय्यन किए जाएँ। मंटो इस फ़र्ज़ से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहा, इसीलिए उसका बुरे से बुरा अफ़साना भी हमारे लिए कुछ न कुछ मअ’नी ज़रूर रखता है। फ़ह्हाशी की एक ता’रीफ़ ये भी है कि वो लिखने वाले और पढ़ने वाले दोनों को ख़ुद-ग़रज़ बनाती है। दोनों के मक़ासिद सरासर ज़ाती, सत्ही और तय-शुदा होते हैं, मगर मंटो ने अनानियत का मुक़न्ना पहनने के बा’द भी अपने समाजी तअह्हुद को क़ाइम रखा। ऐसा न हो तो मंटो की तहरीरों के ख़िलाफ़ अदीब की समाजी, वाबस्तगी और अदब के समाजी रोल पर ज़ोर देने वाले हल्क़ों की जानिब से इतने शदीद रद्द-ए-अ’मल का इज़हार न होता। मंटो ने समाजी तअह्हुद के मअ’नी ही बदल दिए, चुनाँचे अपने तरक़्क़ी-पसंद मुआ’सिरीन से उसके इख़्तिलाफ़ात के बावुजूद ख़ुद तरक़्क़ी-पसंद नक़्क़ाद भी मंटो पर न तो समाजी शऊ’र से आ’री होने की तोहमत लगा सकते हैं, न उसे मीरा-जी की क़िस्म के अदीबों के सफ़ में रखा जा सकता है।

    उसने कहा था, ‘हम लिखने वाले पैग़ंबर नहीं। हम एक ही चीज़ को, एक ही मसअले को मुख़्तलिफ़ हालात में मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से देखते हैं और जो कुछ हमारी समझ में आता है, दुनिया के सामने पेश कर देते हैं और दुनिया को कभी मजबूर नहीं करते कि वो उसे क़ुबूल भी करे।’ ये तो मंटो का अपना ज़ाविया-ए-नज़र था जिसमें इन्क़िसार की शाइस्तगी भी है और अदीब के मंसब का इ’रफ़ान भी। उसने अपनी जानिब से कोई जब्र अपने मुआ’शरे पर या अपने क़ारी पर नहीं आयद किया। लेकिन दुशवारी ये थी कि मंटो के तख़य्युल की ज़र-ख़ेज़ी ने जिन सच्चाइयों के निशानात ढूँढ निकाले थे, ख़ुद उनकी हैसियत एक ऐसे दाइम-ओ-क़ाइम जब्र की थी जो ज़िंदगी की तरकीब में शामिल है और जिसकी अज़ीयत उठाने की सकत हर एक में न थी। आ’म इंसानों की तरह बेशतर समाजी क़वानीन बे-लोच भी होते हैं और उनके मुहाफ़िज़ अपनी मा’ज़ूरी के ए’तिराफ़ पर आमादा भी नहीं होते। मंटो ने उनसे ऐसा कोई तक़ाज़ा भी नहीं किया। ऐसी सूरत में मा’क़ूलियत की बात तो यही थी कि वो मंटो को भी अपने मुहासिबे और मुतालिबात से आज़ाद छोड़ देते, ये सोच कर कि दुनिया की हर चीज़ हर शख़्स के लिए नहीं होती। मगर इसे एक आ’म इंसान की हैसियत से मंटो की ख़ुश-नसीबी समझा जाए या बद-बख़्ती कि ब-तौर अदीब उसे नज़र-अंदाज करना मुम्किन ही न था, सो ये आशोब उसे भुगतना ही पड़ा। मंटो की हैसियत इसीलिए उर्दू फ़िक्शन की तारीख़ में एहसास और फ़िक्र के एक उस्लूब की भी है और एक हंगामा-आफ़रीं वाक़िए’ की भी।

    “अपने अफ़्सानों के सिलसिले में मुझ पर चार मुक़द्दमे चल चुके हैं, पाँचवाँ अब चला है जिसकी रूदाद मैं बयान करना चाहता हूँ। पहले चार अफ़साने जिन पर मुक़द्दमा चला, उनके नाम हस्ब-ए-ज़ैल हैं, ‘काली शलवार’, ‘धुआँ’, ‘ठंडा गोश्त’, और पाँचवाँ ‘ऊपर नीचे और दरमियान’। पहले तीन अफ़्सानों में तो मेरी ख़लासी हो गई, काली शलवार के सिलसिले में मुझे दिल्ली से दो तीन बार लाहौर आना पड़ा। ‘धुआँ’ ने मुझे बहुत तंग किया, इसलिए कि मुझे मुंबई से लाहौर आना पड़ता था, लेकिन ‘गोश्त’ का मुक़द्दमा सबसे बाज़ी ले गया। उसने मेरा भुर्कस निकाल दिया। ये मुक़द्दमा गो यहाँ पाकिस्तान में हुआ, मगर अ’दालतों के चक्कर कुछ ऐसे थे जो मुझ ऐसा हस्सास आदमी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि अ’दालत एक ऐसी जगह है जहाँ हर तौहीन बर्दाश्त करना ही पड़ती थी। ख़ुदा करे, किसी को, जिसका नाम अ’दालत है, से वास्ता न पड़े। ऐसी अ’जब जगह मैंने कहीं भी नहीं देखी। पुलिस वालों से मुझे नफ़रत है। उन लोगों ने मेरे साथ हमेशा ऐसा सुलूक किया है जो गठिया क़िस्म के अख़्लाक़ी मुल्ज़िमों से किया जाता है।”

    एहतिसाब और सेंसरशिप के हुदूद पर इज़हार-ए-ख़याल करते हुए मग़रिब की एक अ’दालत-ए-आलिया के जस्टिस बरनान (जिन्होंने उस ज़माने के मा’रूफ़ Roth case का फ़ैसला किया और जिसके बा’द बेशतर मग़रिबी ममालिक के सेंसरशिप के निज़ाम में ज़बरदस्त तब्दीलियाँ रू-नुमा हुईं) ने कहा था कि किसी मुसन्निफ़ पर फ़ह्हाशी का जुर्म आयद करने से पहले कम-अज़-कम तीन बातों की तस्दीक़ होनी चाहिए। एक तो ये कि मुतअ’ल्लिक़ा तहरीर का बुनियादी तअस्सुर मजमूई’ तौर पर जिन्सी वारदात में एक इब्तिज़ाल-आमेज़ दिलचस्पी की तरग़ीब देता है, दूसरे ये कि उस तहरीर का मक़सद मुआसिर मुआ’शरती रवय्यों और ज़ाब्तों को जान-बूझ कर मजरूह करना है, और तीसरे ये कि मुसन्निफ़ ने अपनी तहरीर में जो मवाद पेश किया है उसकी समाजी क़द्र कुछ भी नहीं है।

    इस तर्ज़-ए-फ़िक्र से अंदाज़ा होता है कि हमारे ज़माने तक आते-आते अदब में फ़ह्हाशी के तसव्वुर की वुसअ’त का एहसास सिर्फ़ अदब लिखने वालों या अदब से पेशावराना तअ’ल्लुक़ रखने वालों तक महदूद नहीं रह गया था। इसके समाजी, तहज़ीबी, नफ़सियाती और तारीख़ी अ’वामिल का क़िस्सा बहुत तूलानी है, बहर-हाल, मुजमलन यहाँ इस अम्र की तरफ़ इशारा ज़रूरी है कि अदब की तफ़हीम और तख़्लीक़ दोनों की बाबत हमारे अ’हद के आ’म नुक़्ता-ए-नज़र में बहुत धुँदली और ख़ामोश सही, मगर कुछ न कुछ तब्दीली ज़रूर हुई है। इसका सबब ये है कि अब अदब की दुनिया भी इख़्तिसास के दायरे में सिमटती जा रही है। दूसरे ये कि हमारे मुआ’शरे में अब अदीब पहली जैसी ख़तरनाक हैसियत रखने वाला शहरी नहीं रह गया है। समाज के नज़्म-ओ-नसक़ और उसकी तरबियत और ता’मीर के हुक़ूक़ अब जिस नौ’ के अफ़राद के नाम कम-ओ-बेश महफ़ूज़ हो चुके हैं, वो अदीब को समाजी सत्ह पर अपना हरीफ़ नहीं समझते।

    अब ‘फ़ैनी हिल’ जैसी किताबें खुले बंदों छपती और बिकती हैं और फ्रैंक हैरिस, या हैनरी मिलर जैसे लिखने वालों को मुआ’शरती इदारे ख़ौफ़ और नफ़रत और हिक़ारत की नज़र से नहीं देखते। आ’म लोगों की नज़र में अदीब एक बे-ज़रर मख़्लूक़ है और बस। इसीलिए अ’वामी सत्ह पर अब किसी अदबी तख़्लीक़ के सिलसिले में रद्द-ए-अ’मल का इज़हार या तो होता ही नहीं और अगर होता भी है तो उसके नताइज दूर-रस नहीं होते। मग़रिब के बेशतर मुल्कों में रौशन ख़याली की इस रिवायत का सिलसिला अ’र्सा पहले शुरू’ हो चुका था। अलबत्ता इश्तिराकी मुआ’शरे या ऐसे ममालिक जहाँ शख़्सी इक़्तिदार की रस्म अब तक चली आरही है, इस क़िस्म की रौशन ख़याली को अब भी क़ुबूल करने पर आमादा नज़र नहीं आते, सबब बहुत वाज़ेह है। इक़्तिदार चाहे शख़्सी हो या उसकी बागडोर किसी मख़्सूस नज़रिए या सियासी तसव्वुर और मज़हबी अ’क़ीदे के मुबल्लिग़ों के हाथ में हो, हर उस सच्चाई को शक और ख़ौफ़ की निगाह से देखता है जिससे उसकी अपनी बुनियादों पर ज़र्ब पड़ती है, या अगर बराह-ए-रास्त ज़र्ब नहीं भी पड़ती तो कम-अज़-कम जिससे अस्हाब-ए-इक़्तिदार के अपने क़ौमी, फ़िर्कावाराना, सियासी और समाजी तअस्सुबात की तस्दीक़ न होती हो।

    ऐसे मुआ’शरों की अख़्लाक़ी बिसात इतनी महदूद और शऊ’र की बुनियादें इस दर्जा कमज़ोर होती हैं कि इख़्तिलाफ़ की मा’मूली सी लहर भी उन्हें अपने लिए एक ख़तरा दिखाई देती है। इस सूरत-ए-हाल के तमाशे शख़्सी या नज़रियाती इक़्तिदार के मातहत मुआ’शरों में आए दिन दिखाई देते हैं। ऐसे मुआ’शरों में सेंसरशिप के उसूल-ओ-ज़वाबित की तई’न जितने नाक़िस और कमज़ोर मफ़रूज़ात की बुनियाद पर होती है, उनका तसव्वुर भी मुहज़्ज़ब दुनिया के लिए इ’बरत का ख़ासा सामान फ़राहम करता है। मंटो पर क़ानून की जिस दफ़ा’ के तहत मुक़द्दमे चलाए गए उसकी तफ़सीलात ख़ुद मंटो ने ‘ज़हमत मेहर-ए-दरख़्शाँ’ में बयान की हैं,

    “फ़ह्हाशी की जाँच का मेया’र वहाँ ये मुक़र्रर किया गया है कि आया फ़ह्हाशी के तहत इल्ज़ाम-ज़दा मज़्मून में उन लोगों के अख़्लाक़ बिगाड़ने और उनको बुरी तरग़ीब देने का मैलान है, जिनके ज़हन ऐसे ग़ैर-अख़्लाक़ी असरात क़ुबूल करने के लिए तैयार हैं, और जिनके हाथों में इस क़िस्म की, अख़्लाक़ के लिए ज़रर-रसाँ तस्नीफ़ है, अंदाज़ा किया जाए, उनके ज़हन में बद-चलनी और बद-कारी का असर पैदा करेगी; (अगर ऐसा है) तो ये एक फ़ुहश इशाअ’त होगी। क़ानून का मंशा है कि इस (की फ़रोख़्त) को रोका जाए। अगर कोई तहरीर हक़ीक़तन किसी एक भी जिन्स के नौजवान या ज़ियादा उ’म्र के लोगों के अज़हान को इंतिहाई गंदे और शहवत-परस्ताना क़िस्म के ख़यालात सुझाए तो उसकी इशाअत ख़िलाफ़-ए-क़ानून है, ख़्वाह मुल्ज़िम के पेश-ए-नज़र कोई दर-पर्दा मक़सद ही क्यों न हो, जो मासूम हत्ता कि क़ाबिल-ए-ता’रीफ़ हो। कोई चीज़ जो शहवानी जज़्बात को मुश्तइ’ल करे फ़ुहश है।”

    या’नी ये कि इस मुआ’मले में क़ानून ने अगर-मगर की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी। ऐसा महसूस होता है कि ये क़ानून नहीं बल्कि दौर-ए-वहशत के किसी क़बाइली सरदार का फ़रमान-नामा है। हो सकता है कि मंटो को आज भी अपने मख़्सूस समाजी माहौल में इसी सत्ह के तजरबे से दो-चार होना पड़ता, लेकिन ये तय है कि मुआ’शरे की जानिब से इस नौ’ के क़वानीन को आज पहली जैसी छूट नहीं मिल सकती। सियासी नज़रिए या शख़्सी इक़्तिदार के ताबे’ ममालिक में सेंसरशिप के निज़ाम के सदमात सिर्फ़ ऐसे अदीब नहीं सहते जो हाल की फ़िज़ा में साँसें ले रहे होते हैं, इसका शिकार माज़ी का वो अदबी सरमाया भी होता है जिसमें मौजूदा सूरत-ए-हाल से तसादुम या उसकी नफ़ी के निशानात का सुराग़ मिलता है। ऐसे ममालिक जो शख़्सी या किसी सिक्का-बंद सियासी निज़ाम के ताबे’ नहीं हैं, वहाँ भी अदब के एहतिसाब की बुनियादें मुज़हिक और ना-मा’क़ूल हैं, गरचे एक बदली हुई सत्ह पर। दिलचस्प बात ये है कि सेंसरशिप ने क़ानून की हैसियत उस अ’हद में इख़्तियार की जिसे अहल-ए-मग़रिब तअ’क़्क़ुल के अ’हद का नाम देते हैं।

    फ़ह्हाशी की बुनियाद पर अदब की बा-क़ायदा सेंसरशिप का आग़ाज़ इंग्लिस्तान, अमरीका दोनों मुल्कों में 1868 में हुआ और फ़ह्हाशी की पहचान ये क़ाइम की गई कि वो अदब-पारा जो ना-पुख़्ता (ना-बालिग़) ज़हनों पर ग़ैर-अख़्लाक़ी असरात मुरत्तब करे, फ़ुहश और क़ाबिल-ए-गिरफ़्त है। बीसवीं सदी तक आते-आते इस मेया’र ने इतनी तरक़्क़ी कर ली कि अब ना-बालिग़ ज़हनों की जगह आ’म सूझ-बूझ रखने वाले अफ़राद को दे दी गई। इसमें भी कोई मुज़ाइक़ा नहीं था, अगर किसी अदब-पारे की बाबत आ’म सूझ-बूझ रखने वाले का रद्द-ए-अ’मल जानने से पहले उन्हें अदब की हुदूद और उसकी तख़्लीक़ के अ’मल से मुतअ’ल्लिक़ चंद बुनियादी नकात से बा-ख़बर कर दिया जाता। ब-क़ौल मंटो, जिस तरह अदब और ग़ैर-अदब के दरमियान किसी खुले हुए इ’लाक़े का वजूद नहीं है, उसी तरह अदब को समझने वालों और न समझने वालों के हल्क़े भी मुतअ’य्यन हैं।

    मंटो का साबिक़ा अपनी कहानियों के एहतिसाब के सिलसिले में अफ़राद की जिस नौ’ से पड़ा, वो सब के सब उसी दूसरे हल्क़े से तअ’ल्लुक़ रखते थे। ऐसा न होता तो अपने मुक़द्दमात के बारे में मंटो की वज़ाहतें इस दर्जा आम-फ़हम बल्कि सत्ही न होतीं। जिस तरह सिक्का-बंद समाजी और सियासी नज़रियात के ताबे’ ममालिक में सेंसरशिप के क़वानीन के बुनियादी लाहिक़े सियासी होते हैं, उसी तरह मंटो को जिन अफ़राद और ज़ाब्तों से निपटना पड़ा उनके “अदबी तसव्वुर” की असास या तो अख़्लाक़ के रिवायती तसव्वुर पर क़ाइम थी या फिर मज़हब पर। मज़हब तो ख़ैर एक इदारा है ही, अख़्लाक़ी तसव्वुरात भी बा-क़ायदा रिवायत बनने के बा’द एक इदारे ही की हैसियत इख़्तियार कर लेते हैं, चुनाँचे उसमें तअस्सुबात का दर आना फ़ितरी है। इसकी मुज़हिक-तरीन मिसाल हज़रत ईसा से बानवे बरस पहले का एक कुत्बा है जिसमें ख़िताबत के राइज तसव्वुर के बर-ख़िलाफ़ एक नए तसव्वुर के क़याम पर एहतिसाब आयद किए जाने का तज़्किरा है। अफ़राद और ईक़ानात जब इदारे बन जाते हैं तो उनसे किसी बा-मअ’नी इख़्तिलाफ़ के दरवाज़े ख़ुद ब-ख़ुद बंद हो जाते हैं। मंटो की सारी मुश्किल यही थी।

    मंटो को हम सिर्फ़ उन मअ’नों में फ़ुहश-निगार कह सकते हैं जिनकी गुंजाइश इस्तिलाहात-ए-इ’ल्मिया के माहिरीन ने लफ़्ज़ Pornography के इख़तिरा’ में निकाली है। उनका बयान है कि Pornography का मुसद्दिर यूनानी ज़बान के लफ़्ज़ porne ब-मअ’नी तवाइफ़ है। चुनाँचे तवाइफ़ों के बारे में कुछ लिखना फ़ह्हाशी है। मंटो ने तवाइफ़ों के बारे में लिखा ही नहीं, उन्हें अपनी ज़िंदगी को एक तख़्लीक़ी सिम्त अ’ता करने वाले किरदारों की हैसियत से भी देखा है।

    “हम रजाई हैं। दुनिया की सियाहियों में भी हम उजाले की लकीर देख लेते हैं। हम किसी को हिक़ारत की नज़र से नहीं देखते, चकलों में जब कोई टखियाई अपने कोठे पर से किसी राहगीर पर पान की पीक थूकती है, तो हम दूसरे तमाशाइयों की तरह न तो कभी उस राहगीर पर हँसते हैं और न कभी उस टखियाई को गालियाँ देते हैं। हम ये वाक़िआ देख कर रुक जाएँगे। हमारी निगाहें उस ग़लीज़ पेशा-वर औ’रत के नीम-उर्यां लिबास को चीरती हुई उसके सियाह इ’स्याँ भरे जिस्म के अंदर दाख़िल हो कर उसके दिल तक पहुँच जाएँगी, उसको टटोलेंगी और टटोलते हुए हम ख़ुद कुछ अ’र्से के लिए तसव्वुर में वही करीहा और मुतअ’फ़्फ़िन रंडी बन जाएँगे, सिर्फ़ इसलिए कि हम इस वाक़िए’ की तस्वीर ही नहीं बल्कि उसके अस्ल मुहर्रिक की वज्ह भी पेश कर सकें।

    हम वकीलों के मुतअ’ल्लिक़ खुले बंदों बातें कर सकते हैं। हम नाइयों, धोबियों, कंजड़ों और भटियारों के मुतअ’ल्लिक़ बात-चीत कर सकते हैं। हम चोरों, उचक्कों, ठग्गों और राहज़नों के क़िस्से सुना सकते हैं। हम जुनूँ और परियों की दास्तानें बैठ के गढ़ सकते हैं। हम ये कह सकते हैं कि जब आसमान की तरफ़ शैतान बढ़ने लगता है तो फ़रिश्ते तारे तोड़-तोड़ कर उसे मारते हैं। हम ये कह सकते हैं कि बैल अपने सींगों पर सारी दुनिया उठाए हुए है। हम दास्तान-ए-अमीर हम्ज़ा और क़िस्सा तोता मैना तस्नीफ़ कर सकते हैं। हम लंधोर पहलवान के गुर्ज़ की ता’रीफ़ कर सकते हैं। हम उ’मर-ओ-अय्यार की टोपी और ज़ंबील की बातें कर सकते हैं। हम उन तोतों और मैनाओं के क़िस्से सुना सकते हैं जो हर ज़बान में बातें करते थे। हम जादूगरों के मंत्रों और उनके तोड़ की बातें कर सकते हैं।

    हम अ’मल हम-ज़ाद और कीमिया-गरी के मुतअ’ल्लिक़, जो मन में आए कह सकते हैं। हम दाढ़ियों, पायजामों और सर के बालों की लंबाई पर झगड़ सकते हैं। हम ये सोच सकते हैं कि सब्ज़-रंग के कपड़े पर किस रंग और किस क़िस्म के बटन सजेंगे... हम वेश्या के मुतअ’ल्लिक़ क्यों नहीं सोच सकते। उसके पेशे के बारे में क्यों ग़ौर नहीं कर सकते। उन लोगों के मुतअ’ल्लिक़ क्यों कुछ नहीं कह सकते जो उसके पास जाते हैं?”

    और अब मंटो के एक सवानह-निगार की किताब से ये चंद सतरें,

    “सामने लालटैन की रोशनी में, एक औ’रत नंगे फ़र्श पर बैठी रोटी खा रही थी। हमें देखकर वो उठ खड़ी हुई। उसकी उ’म्र ब-मुश्किल अठारह से उन्नीस बरस की होगी, लेकिन वो फ़ाक़ा-ज़दा मा’लूम होती थी। उसका रंग गहरा साँवला था। उसकी आँखें उस बच्चे की तरह डरी हुई थीं जैसे कोई बुरी बात करते हुए किसी ने सर से पकड़ लिया हो।”

    “अरे भई, कोई माल-वाल भी है कि नहीं?”, अब्बास ने ठेट तमाश-बीनों के अंदाज़ में पूछा।

    “इस वक़्त तो मैं ही हूँ...”, उस औ’रत ने लुक़्मा निगलते हुए पूरबी लहजे में जवाब दिया। उसने लालटैन फ़र्श से उठाई और उसे अपने चेहरे के बराबर ले आई जैसे अपना माल दिखाना चाहती है।

    “अच्छा तो फिर कभी आएँगे!”, अब्बास ने कहा। गाहक को सौदा पसंद नहीं आया था और वो कोई दूसरी दूकान देखने का इरादा कर चुका था। लड़की का चेहरा दफ़अ’तन और सियाह हो गया। मुझे यूँ महसूस हुआ जैसे हरीकेन लालटैन धुआँ छोड़ती हुई यकायक भक से बुझ गई है और उस औ’रत के चेहरे पर, जो उसकी रोशनी में अपना सौदा बेचना चाहती थी कालिक और लेप कर गई है। सीढ़ियाँ उतरते वक़्त मुझे यूँ महसूस हुआ जैसे बाहर सड़क के, फ़त्हपुरी के, चाँदनी-चौक के, सारी दिल्ली के दिये गुल हो गए हैं। हिंदुओं, पठानों, तुग़लकों, लोधियों, ख़िलजियों, ग़ुलामों, मुग़लों और अंग्रेज़ों की दिल्ली पर किसी बहुत बड़े हवाई हमले की तैयारियाँ हो रही हैं, जिससे बचने के लिए हम किसी अंधे कुँवें में उतरते जा रहे हैं।

    मंटो ख़ामोश था। शायद उसे महसूस हो रहा था कि उसकी सौगंधी में अब जलने की हिम्मत भी नहीं रही। हतक का एहसास भी जाता रहा। सेठ ‘ऊँह!’ कर के निकल गया है।” (अबू सईद क़ुरैशी)

    इन इक़्तिबासात से ये हक़ीक़त सामने आती है कि तवाइफ़ को मौज़ू’ बनाना भी मंटो के लिए दर-अस्ल एक अख़्लाक़ी इंतिख़ाब का ही जब्र था। फ़ुहश-निगारी के अ’मल पर इससे बड़ा तंज़ और क्या हो सकता है? ये सवाल मंटो के मो’तरिज़ीना के लिए है। लेज़्ली फेडलर ने छुप-छुपाते बिकने वाली किताबों का ज़िक्र करते हुए ये ऐ’लान किया था कि अब फ़ह्हाशी की मौत हो चुकी है और हम अदबी फ़ह्हाशी को एक संजीदा अ’मल की शक्ल में क़ुबूल करने के आ’दी होते जा रहे हैं। उर्दू अफ़साने की ज़मीन पर ये बीज मंटो ने बिखेरे थे, फ़स्ल अब तैयार हुई है...

    मगर मंटो! वो फ़ुहश निगार कब था?

     

    स्रोत:

    मन्टो: हक़ीकत से अफ़्साने तक (Pg. 13)

    • लेखक: शमीम हनफ़ी
      • प्रकाशक: दिल्ली किताब घर, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2012

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