aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
Showing search results for "बिल्डिंग"
Ghazala Rafique
1939 - 1977
Artist
त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आया था।आसमान बिल्कुल साफ़ था। बादलों से बेनियाज़, बहुत बड़े ख़ाकिस्तरी तंबू की तरह सारी बंबई पर तना हुआ था। हद्द-ए-नज़र तक जगह जगह बत्तियां रौशन थीं। त्रिलोचन ने ऐसा महसूस किया था कि आसमान से बहुत सारे सितारे झड़ कर बिल्डिंगों से जो रात के अंधेरे में बड़े बड़े दरख़्त मालूम होती थीं, अटक गए हैं और जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहे हैं।
vo shamshaad building pe ik shor-e-mahsharvo mub.ham sii baate.n vo poshiida nashtar
भोलू ने गामा से जो कि उससे दो साल बड़ा था बहुत समझाया कि देखो ये शराब की लत बहुत बुरी है। शादीशुदा हो, बेकार पैसा बर्बाद करते हो। यही जो तुम हर रोज़ एक पाव शराब पर ख़र्च करते हो बचा कर रख्खो तो भाभी ठाट से रहा करे। नंगी बुच्ची अच्छी लगती है तुम्हें अपनी घर वाली। गामा ने इस कान सुना, उस कान से निकाल दिया। भोलू जब थक हार गया तो उसने कहना-सुनना ही छोड़ द...
जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर वो घर के सारे कमरों में हाथ में झुमके लिए फिरता है, “मुन्नी की माँ, मुन्नी की माँ” कहता। लड़की उसके पीछे पीछे भागती है, “मुन्नी, माँ कहाँ है तेरी?” लड़की जवाब देती है, “वहां गई है।” लड़की का इशारा सामने बिल्डिंग की तरफ़ था। चिरंजी उधर देखता है, खिड़की के शीशों में से एक मर्द और एक औरत का साया नज़र आता है। मर्द औरत के कानों में बुन्दे पहना रहा है, लंबे लंबे बुन्दे।
उनकी मौजूदा बीवी उड़ीसा के एक मारवाड़ी महाजन की लड़की थी जिसको ये कलकत्ते से उड़ा लाए थे। बारह-पंद्रह साल क़ब्ल मैंने उसे दिल्ली में देखा था। साँवली सलोनी सी, पस्ता-कद लड़की थी। मियाँ की बद-सुलूकियों से तंग आकर इधर-उधर भाग जाती। लेकिन चंद रोज़ के बा'द फिर वापस मौजूद। ख़ानसाहब ने कनॉट सर्कस की एक बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल में अंग्रेज़ी नाच सिखाने का स्कूल ...
बिल्डिंगبلڈنگ
building
वो चौक में क़ैसर पार्क के बाहर जहां टांगे खड़े रहते हैं। बिजली के एक खंबे के साथ ख़ामोश खड़ा था और दिल ही दिल में सोच रहा था। कोई वीरानी सी वीरानी है!यही पार्क जो सिर्फ़ दो बरस पहले इतनी पुररौनक़ जगह थी, अब उजड़ी पचड़ी दिखाई थी। जहां पहले औरत और मर्द शोख़-ओ-शंग फ़ैशन के लिबासों में चलते फिरते थे। वहां अब बेहद मैले कुचैले कपड़ों में लोग इधर-उधर बे मक़सद फिर रहे थे। बाज़ार में काफ़ी भीड़ थी मगर उसमें वो रंग नहीं था जो एक मेंले–ठेले का हुआ करता था। आस पास की सीमेंट से बनी हुई बिल्डिंगें अपना रूप खो चुकी थीं। सर झाड़ मुँह फाड़ एक दूसरे की तरफ़ फटी फटी आँखों से देख रही थीं, जैसे बेवा औरतें।
ye duniyaa goyaa hai ek building pe kaam jaariihai us me.n shaamil jo gaaraa dukh hai hamaaraa dukh hai
उसने गुस्से में आकर पान की गाढ़ी पीक थूक दी जिसने फुटपाथ पर कई बेल बूटे बना दिए। पीक थूक कर वो उठा और ट्राम में बैठ कर अपने घर चला गया।घर में उसने नहा-धो कर नई धोती पहनी। जिस बिल्डिंग में रहता था उसकी एक दुकान में सैलून था। उसके अंदर जा कर उसने आईने के सामने अपने बालों में कंघी की। फिर फ़ौरन ही कुछ ख़याल आया तो कुर्सी पर बैठ गया और बड़ी संजीदगी से उसने दाढ़ी मूंडने के लिए हज्जाम से कहा। आज चूँकि वो दूसरी मर्तबा दाढ़ी मुंडवा रहा था, इसलिए हज्जाम ने कहा, “अरे भई ख़ुशिया भूल गए क्या? सुबह ही मैंने ही तो तुम्हारी दाढ़ी मुंडी थी”, इस पर ख़ुशिया ने बड़ी मतानत से दाढ़ी पर उल्टा हाथ फेरते हुए कहा, “खूंटी अच्छी तरह नहीं निकली।”
सरीता की माँ की ज़बान पर हर वक़्त ये कहानी जारी रहती थी लेकिन किसी को यक़ीन नहीं था कि ये सच है या झूट। चाली में से किसी आदमी को भी सरीता की माँ से हमदर्दी न थी। शायद इसलिए कि वो सबके सब ख़ुद हमदर्दी के क़ाबिल थे, कोई किसी का दोस्त नहीं था। उस बिल्डिंग में अक्सर आदमी ऐसे रहते थे जो दिनभर सोते थे और रात को जागते थे क्योंकि उन्हें रात को पास वाली मिल म...
अब क्या हो सकता था... मुस्तक़ीम ख़ामोश रहा।क़रीब क़रीब दो बरस गुज़र गए। एक दिन घर से निकल कर मुस्तक़ीम ऐसे ही तफ़रीहन फुटपाथ पर चहलक़दमी कर रहा था कि उसने कसाइयों की बिल्डिंग की ग्रांऊड फ़्लोर की खोली के बाहर, थड़े पर महमूदा की आँखों की झलक देखी। मुस्तक़ीम दो क़दम आगे निकल गया था। फ़ौरन मुड़ कर उसने ग़ौर से देखा... महमूदा ही थी। वही बड़ी बड़ी आँखें, वो एक यहूदन के साथ जो उस खोली में रहती थी, बातें करने में मसरूफ़ थी।
“जी नहीं, डेढ़ से ज़्यादा एक क़तरा भी नहीं।”करीम एक थर्ड क्लास बिल्डिंग के पास ठहर गया। जिसके एक कोने में छोटे से मैले बोर्ड पर मेरीना होटल लिखा था। नाम तो ख़ूबसूरत था मगर इमारत निहायत ही ग़लीज़ थी। सीढ़ियां शिकस्ता, नीचे सूद खोर पठान बड़ी बड़ी शलवारें पहने खाटों पर लेटे हुए थे। पहली मंज़िल पर क्रिस्चियन आबाद थे। दूसरी मंज़िल पर जहाज़ के बेशुमार ख़लासी। तीसरी मंज़िल होटल के मालिक के पास थी। चौथी मंज़िल पर कोने का एक कमरा करीम के पास था जिसमें कई लड़कियां मुर्ग़ीयों की तरह अपने डरबे में बैठी थीं।
“मुसलमान?” दलाल ने बीड़ी को चूसा, “चलिए।” और ये कह कर वो टैक्सी की अगली नशिस्त पर बैठ गया। ड्राईवर से उसने कुछ कहा, टैक्सी स्टार्ट हुई और मुख़्तलिफ़ बाज़ारों से होती हुई फ़ोरजट स्ट्रीट की साथ वाली गली में दाख़िल हुई, ये गली एक पहाड़ी पर थी। बहुत ऊँचान थी। ड्राईवर ने गाड़ी को फ़र्स्ट गेयर में डाला। हनीफ़ को ऐसा महसूस हुआ कि रास्ते में टैक्सी रुक कर वापस च...
फातो एक तरफ़ सिमट गई। वो सहम गई थी। उसके लबों पर अभी तक उसकी पपड़ी जमे होंट सरक रहे थे। जब फातो ने कनखियों से उसकी तरफ़ देखा तो उसपर बरस पड़ा, “तुम यहां क्या कर रही हो। तुम भूतनी हो... डायन हो... मेरा कलेजा निकाल कर चबाना चाहती हो... जाओ... जाओ...”ये कहते कहते उसने अपने वज़नी सर को दोनों हाथों में थाम लिया, जैसे वो गिर पड़ेगा और हौले-हौले बड़बड़ाने लगा, “फातो मुझे माफ़ कर दो। मुझे कुछ मालूम नहीं कि मैं क्या कह रहा हूँ। मैं बस सिर्फ़ एक बात अच्छी तरह जानता हूँ कि मुझे तुमसे दीवानगी की हद तक मुहब्बत है, इसलिए कि तुमसे मुहब्बत की जाये, मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ, इसलिए कि तुम नफ़रत के क़ाबिल हो... तुम औरत नहीं हो... एक सालिम मकान हो। एक बहुत बड़ी बिल्डिंग हो। मुझे तुम्हारे सब कमरों से मुहब्बत है। इसलिए कि वो ग़लीज़ हैं, शिकस्ता हैं। क्या ये अजीब बात नहीं?”
टैक्सी देर तक इधर-उधर घूमती रही। दलाल ने जब देखा कि हामिद इंतख़ाब के मुआ’मले में बहुत कड़ा है तो इसने दिल में कुछ सोचा और ड्राईवर से कहा, “शिवा जी पार्क की तरफ़ दबाओ... वो भी पसंद न आई तो क़सम ख़ुदा की भड़वागीरी छोड़ दूंगा।”टैक्सी शिवाजी पार्क की एक बंगला नुमा बिल्डिंग के पास रुकी। दलाल ऊपर चला गया। थोड़ी देर के बाद वापस आया और बाबू हरगोपाल और हामिद को अपने साथ ले गया।
वो अपना दिया बुझा कर और अपने आपको अंधेरे में लपेट कर मालिक मकान के उस रोशन कमरे में दाख़िल हुआ जहां वो अपनी दो बिल्डिंगों का किराया वसूल किया करता था और हाथ जोड़ कर एक तरफ़ खड़ा हो गया। सेठ के तिलक लगे माथे पर कई सलवटें पड़ गईं। उसका बालों भरा हाथ एक मोटी सी कापी की तरफ़ बढ़ा। दो बड़ी बड़ी आँखों ने उस कापी पर कुछ हुरूफ़ पढ़े और एक भद्दी सी आवाज़ गूंजी।“केशव लाल, खोली पांचवीं, दूसरा माला... दो महीनों का किराया, ले आए हो क्या?”
Devoted to the preservation & promotion of Urdu
A Trilingual Treasure of Urdu Words
Online Treasure of Sufi and Sant Poetry
World of Hindi language and literature
The best way to learn Urdu online
Best of Urdu & Hindi Books