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फातो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "इस कहानी में प्रेम के प्रभाव को बयान किया गया है। मियां साहब को बुख़ार की हालत में अपनी मुलाज़िमा फातो से मुहब्बत हो जाती है। फातो अपने मुहल्ले में काफ़ी बदनाम है लेकिन इसके बावजूद मियां साहब ख़ुद पर क़ाबू नहीं रख पाते और एक महीने बाद उसे घर से लेकर फ़रार हो जाते हैं।"

    तेज़ बुख़ार की हालत में उसे अपनी छाती पर कोई ठंडी चीज़ रेंगती महसूस हुई। उसके ख़यालात का सिलसिला टूट गया। जब वो मुकम्मल तौर पर बेदार हुआ तो उसका चेहरा बुख़ार की शिद्दत के बाइस तमतमा रहा था। उसने आँखें खोलीं और देखा फातो फ़र्श पर बैठी, पानी में कपड़ा भिगो कर उसके माथे पर लगा रही है।

    जब फातो ने उसके माथे से कपड़ा उतारने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसने उसे पकड़ लिया और अपने सीने पर रख कर हौले-हौले प्यार से अपना हाथ उस पर फेरना शुरू कर दिया।

    उसकी सुर्ख़ आँखें दो अंगारे बन कर देर तक फातो को देखती रहीं। वो इस दहकती हुई टकटकी की ताब ला सकी और हाथ छुड़ा कर अपने काम में मसरूफ़ हो गई। इस पर वो उठ कर बिस्तर में बैठ गया।

    फातो से, जिसका असल नाम फ़ातिमा था, उसको ग़ैर महसूस तौर पर मुहब्बत हो गई थी, हालाँकि वो जानता था कि वो किरदार-ओ-अतवार की अच्छी नहीं... मुहल्ले में जितने लौंडे हैं उससे इश्क़ लड़ा चुके हैं। लेकिन ये सब जानते हुए भी उसको फातो से मुहब्बत होगई थी।

    वो अगर बुख़ार में मुबतला होता तो यक़ीनन उससे अपने इस जज़्बे का इज़हार कभी किया होता... मगर तेज़ बुख़ार के बाइस उसको अपने दिल-ओ-दिमाग़ पर कोई इख़्तियार नहीं रहा था।

    यही वजह है कि उसने ऊंची आवाज़ में फातो को पुकारना शुरू किया, “इधर आओ... मेरी तरफ़ देखो। जानती हो, मैं तुम्हारी मुहब्बत में गिरफ़्तार हूँ, बहुत बुरी तरह तुम्हारी मुहब्बत में गिरफ़्तार हूँ... इस तरह तुम्हारी मुहब्बत में फंस गया हूँ, जैसे कोई दलदल में फंस जाये। मैं जानता हूँ, तुम क्या हो... मैं जानता हूँ तुम इस क़ाबिल नहीं हो कि तुम से मुहब्बत की जाये। मगर ये सब कुछ जानते-बूझते तुमसे मुहब्बत करता हूँ। लानत हो मुझ पर, लेकिन छोड़ो इन बातों को... और मेरी तरफ़ देखो... मैं बुख़ार के इलावा तुम्हारी मुहब्बत में भी फुंका जा रहा हूँ... फातो... फातो... मैं... मैं,”

    उसके ख़यालात का सिलसिला टूट गया और उस पर हिज़यानी कैफ़ियत तारी होगई। उसने डाक्टर मुकन्द लाल भाटिय से कुनैन के नुक़्सानात पर बहस शुरू कर दी।

    चंद लम्हात के बाद वो अपनी माँ से जो वहां मौजूद नहीं थी, मुख़ातिब हुआ, “बीबी जी, मेरे दिमाग़ में बेशुमार ख़यालात रहे हैं। आप हैरान क्यों होती हैं। मुझे फातो से मुहब्बत है, उसी फातो से जो हमारे पड़ोस में पंज बंदों के हाँ मुलाज़िम थी और जो अब आपकी मुलाज़िम है। आप नहीं जानतीं उस लड़की ने मुझे कितना ज़लील करा दिया है। ये मुहब्बत नहीं ख़सरा है, नहीं ख़सरे से बढ़-चढ़ कर। इसका कोई ईलाज नहीं। मुझे तमाम ज़िल्लतें बर्दाश्त करनी होंगी। सारी गली का कूड़ा करकट अपने सर पर उठाना होगा। ये सब कुछ होके रहेगा, ये सब कुछ हो के रहेगा।”

    आहिस्ता आहिस्ता उसकी आवाज़ कमज़ोर होती गई और उसपर ग़नूदगी तारी हो गई। उसकी आँखें नीम वा थीं। ऐसा लगता था कि उसकी पलकों पर बोझ सा आन पड़ा है।

    फातो पलंग के पास फ़र्श पर बैठी उसकी बेजोड़ हिज़यानी गुफ़्तुगू सुनती रही। मगर उस पर कुछ असर हुआ। वो ऐसे बीमारों की कई मर्तबा तीमारदारी कर चुकी थी।

    बुख़ार की हालत में जब उसने अपनी मुहब्बत का एतराफ़ किया तो फातो ने उसके मुतअल्लिक़ क्या महसूस क्या, कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए कि उसका गोश्त भरा चेहरा जज़्बात से बिल्कुल आरी था। मुम्किन है कि उसके दिल के किसी गोशे में हल्की सी सरसराहट पैदा हुई हो। मगर ये चर्बी की तहों से निकल कर बाहर सकी।

    फातो ने रूमाल निचोड़ कर ताज़ा पानी में भिगोया और उसके माथे पर रखने के लिए उठी। अबकी बार उसे इसलिए उठना पड़ा कि उसने करवट बदली थी। जब उसने आहिस्ता से उधर से मुड़ कर उसके माथे पर गीला रूमाल जमाया तो उसकी नीम वा आँखें यूँ खुलीं जैसे लाल-लाल ज़ख़्मों के मुँह टाँके उधड़ जाने से खुल जाते हैं।

    उसने एक लम्हे के लिए फातो के झुके हुए चेहरे की तरफ़ देखा। उसके गाल थोड़े से नीचे लटक आए थे फिर एक दम जाने उस पर क्या वहशत सवार हुई, उसने फातो को अपने दोनों बाज़ूओं में जकड़ कर इस ज़ोर से अपनी छाती के साथ भींचा कि उसकी रीढ़ की हड्डी कड़ कड़ बोल उठी। फिर उसने उसको अपनी रानों पर लिटा कर उसके मोटे और गुदगुदे होंटों पर इस ज़ोर से अपने तपते हुए होंट पैवस्त किए जैसे वो उन्हें दाग़ना चाहता है।

    उसकी गिरफ्त इस क़दर ज़बरदस्त थी कि फातो कोशिश के बावजूद ख़ुद को आज़ाद कर सकी। उसके होंट देर तक उसके होंटों पर इस्त्री करते रहे। फिर अचानक हाँपते हुए उसने फातो को एक झटके से अलग कर दिया और उठ कर बिस्तर में यूं बैठ गया जैसे उसने कोई डरावना ख़्वाब देखा था।

    फातो एक तरफ़ सिमट गई। वो सहम गई थी। उसके लबों पर अभी तक उसकी पपड़ी जमे होंट सरक रहे थे। जब फातो ने कनखियों से उसकी तरफ़ देखा तो उसपर बरस पड़ा, “तुम यहां क्या कर रही हो। तुम भूतनी हो... डायन हो... मेरा कलेजा निकाल कर चबाना चाहती हो... जाओ... जाओ...”

    ये कहते कहते उसने अपने वज़नी सर को दोनों हाथों में थाम लिया, जैसे वो गिर पड़ेगा और हौले-हौले बड़बड़ाने लगा, “फातो मुझे माफ़ कर दो। मुझे कुछ मालूम नहीं कि मैं क्या कह रहा हूँ। मैं बस सिर्फ़ एक बात अच्छी तरह जानता हूँ कि मुझे तुमसे दीवानगी की हद तक मुहब्बत है, इसलिए कि तुमसे मुहब्बत की जाये, मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ, इसलिए कि तुम नफ़रत के क़ाबिल हो... तुम औरत नहीं हो... एक सालिम मकान हो। एक बहुत बड़ी बिल्डिंग हो। मुझे तुम्हारे सब कमरों से मुहब्बत है। इसलिए कि वो ग़लीज़ हैं, शिकस्ता हैं। क्या ये अजीब बात नहीं?”

    फातो ख़ामोश रही, उस पर अभी तक इस आहनी गिरफ्त और उसके ख़ौफ़नाक बोसे का असर मौजूद था। वो उठ कर कमरे से बाहर जाने का इरादा ही कर रही थी कि उसने फिर हिज़यानी कैफ़ियत में बड़ बराना शुरू कर दिया।

    फातो ने उसकी तरफ़ देखा और वो किसी ग़ैर मरई आदमी से बातें कर रहा था। बिस्तर पर उसने बड़ी मुश्किल से करवट बदली, फातो को अपनी सुर्ख़ सुर्ख़ आँखों से देखा और पूछा, “क्या कह रही हो तुम।”

    उसने कुछ भी नहीं कहा था। इसलिए वो ख़ामोश रही।

    फातो की ख़ामोशी से उसे ख़याल आया कि हिज़यानी कैफ़ियत में वो बेशुमार बातें कर चुका है। जब उसको इस बात का एहसास हुआ कि वो अपनी मुहब्बत का इज़हार भी उससे कर चुका है तो उसे अपने आप पर बेहद ग़ुस्सा आया। इसी ग़ुस्से में वो फातो से मुख़ातिब हुआ, “मैंने तुम से जो कुछ कहा था वो बिल्कुल ग़लत है... मुझे तुम से नफ़रत है।”

    फातो ने सिर्फ़ इतना कहा, “जी ठीक होगा।”

    वो कड़का, “सिर्फ़ ठीक ही नहीं, सौ फ़ीसद हक़ीक़त है... मुझे तुम से सख़्त नफ़रत है। जाओ, चली जाओ मेरे कमरे से। ख़बरदार जो कभी इधर का रुख़ किया।”

    फातो ने हस्ब-ए-मामूल नर्म लहजे में जवाब दिया, “जी अच्छा।”

    ये कह कर वो जाने लगी कि उसने उसे रोक लिया, “ठहरो... एक बात सुनती जाओ।”

    “फ़रमाईए।”

    “नहीं, मुझे कुछ नहीं कहना है... तुम जा सकती हो।”

    फातो ने कहा, “मैं जा तो रही थी... आपने ख़ुद मुझे रोका...” ये कह उसने बर्तन उठाए और कमरे से निकलने लगी। मगर उसने फिर उसे आवाज़ दे कर रोका।

    “ठहरो... मैं एक बात तुम से कहना भूल गया हूँ।”

    फातो ने बर्तन तिपाई पर रखे और उससे कहा, “क्या बात है... बता दीजिए... मुझे और काम करने हैं।”

    वो सोचने लगा कि उसने फातो को रोका क्यों था... उसे इससे ऐसी कौन सी अहम बात करना थी। वो ये सोच ही रहा था कि फातो ने उससे कहा, “मियां साहब, मैं खड़ी इंतिज़ार कर रही हूँ। आपको मुझ से क्या कहना है।”

    वो बौखला गया, “मुझे क्या कहना था... कुछ भी तो नहीं कहना था... मेरा मतलब है कहना तो कुछ था मगर भूल गया हूँ।”

    फातो ने बर्तन तिपाई पर रखे, “आप याद कर लीजिए... मैं यहां खड़ी हूँ।”

    उसने आँखें बंद करलीं और याद करने लगा। उसे फातो से ये कहना था... उसके दिमाग़ में बेशुमार ख़यालात थे। दरअसल ये कहना चाहता था कि फातो उसके घर से चली जाये। इसलिए कि वो उससे इस क़दर नफ़रत करता है कि वो नफ़रत बेपनाह मुहब्बत में तबदील होगई है।

    उसने थोड़े अर्सा के बाद आँखें खोलीं। फातो तिपाई के साथ खड़ी थी। उसने समझा कि शायद ये सब ख़्वाब है, पर जब उसने इधर उधर का जायज़ा लिया तो उसे मालूम हुआ कि ख़्वाब नहीं हक़ीक़त है, लेकिन उसकी समझ में नहीं आता था कि फातो क्यों बुत की मानिंद उसकी चारपाई के साथ खड़ी है।

    उसने कहा, “तू यहां खड़ी क्या कर रही है।”

    फातो ने जवाब दिया, “आप ही ने तो कहा था कि आपको मुझ से कोई ज़रूरी बात कहनी है।”

    वो चिड़ गया, झुँझला कर बोला, “तुमसे मुझे कौन सी ज़रूरी बात कहना थी... जाओ,दूर हट जाओ मेरी नज़रों से।”

    फातो ने तशवीशनाक नज़रों से उसकी तरफ़ देखा।“ऐसा लगता है आप का बुख़ार तेज़ होगया है... मैं बीबी जी से कहती हूँ कि डाक्टर को बुला लें।”

    वो और ज़्यादा चिड़ गया, “डाक्टर आया तो मैं उसे गोली मार दूंगा... और तुम्हारा तो मैं इन दो हाथों से गला घोंट दूँगा।”

    फातो ने अपने लहजे को और ज़्यादा नर्म बना कर कहा, “आप अभी घोंट डालिए... मैं अपनी ज़िंदगी से उकता चुकी हूँ।”

    उसने पूछा, “क्यों?”

    “बस अब जी नहीं चाहता ज़िंदा रहने को... मियां साहिब आपको मालूम नहीं, मैं ये दिन कैसे गुज़ार रही हूँ... अल्लाह की क़सम... एक एक पल ज़हर का घूँट है। ख़ुदा के लिए आप मेरा गला घोंटकर मुझे मार दीजिए!”

    वो लिहाफ़ के अंदर काँपने लगा... “फातो, जाओ मुझे तुमसे नफ़रत है।”

    फातो ने बड़ी मासूमियत से कहा, “मैं जाने लगती हूँ... पर आप मुझे रोक लेते हैं।”

    उसने भन्ना कर कहा, “कौन हरामज़ादा तुझे रोकता है... जा... दूर हो जा।”

    फातो जाने लगी तो उसने उसे फिर रोक लिया, “ठहरो।”

    वो ठहर गई... “फ़रमाईए।”

    “तुम निहायत वाहियात औरत हो... ख़ुदा तुम्हें ग़ारत करे। जाओ अब मेरी नज़रों से ग़ायब हो जाओ।” फातो बर्तन उठा कर चली गई।

    एक महीने बाद मुहल्ले में शोर मचा कि फातो किसी के साथ भाग गई है। सब उसको बुरा भला कह रहे थे। औरतें ख़ासतौर पर उसके किरदार में कीड़े डाल रही थीं और फातो अपने मियां साहब के साथ कलकत्ते में अज़दवाजी ज़िंदगी बसर कर रही थी।

    उसका शौहर हर रोज़ उससे कहता था, “फ़ातिमा, मुझे तुम से नफ़रत है।”

    और वो मुस्कुरा कर जवाब देती, “ये नफ़रत अगर होती तो मेरी ज़िंदगी कैसे संवरती... आप मुझ से सारी उम्र नफ़रत ही करते रहिए।”

    स्रोत:

    मंटो: कहानियाँ (Pg. 542)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1995

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