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नज़्म
इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर
शगुफ़्ता हो के कली दिल की फूल हो जाए
ये इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर क़ुबूल हो जाए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
आज समझा ठोकरों के ब'अद भी है ज़िंदगी
क्यूँ अता मुझ को 'मुसाफ़िर' ये सिफ़त करता रहा
विलास पंडित मुसाफ़िर
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नज़्म
ये सराए है
ये सराए है यहाँ किस का ठिकाना ढूँडो
याँ तो आते हैं मुसाफ़िर सो चले जाते हैं
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
काट दी वक़्त ने ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़ की कड़ी
अब मुसाफ़िर को कोई रोकने वाला भी नहीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
बार-हा जी में ये आई उम्र-ए-रफ़्ता से कहूँ
शाम होने को है ऐ भूले मुसाफ़िर घर तो आ