aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "'marhab'"
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहींकि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाएहुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
जो काटे मर्हब-ओ-अंतर के सर कोउसी कर्रार सा जासिम अता कर
इस को दौलत ने क्या उठाना हैगिर गया जो हया के मरकब से
लगा है सोचने अहद-ए-रवाँ का 'मरहब' भीबचूँगा किस तरह 'हैदर' मिरी तलाश में है
शाह-ए-ख़ैबर-गीर से मरहब को निस्बत कौन थीदर हिलाना और था मुगदर हिलाना और था
'इश्क़ ओढ़ा 'इश्क़ पहना 'इश्क़ को मज़हब कियाकाम कुछ इस के 'अलावा 'आशिक़ों ने कब किया
का'बा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'शर्म तुम को मगर नहीं आती
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगामगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँहमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैंज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता
बाम-ए-मीना से माहताब उतरेदस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए
ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतनावही लन-तरानी सुना चाहता हूँ
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का 'फ़राज़'ज़ालिम अब के भी न रोएगा तो मर जाएगा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगरजंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो हैलम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस नेबात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थीकि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नयायहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगरसोचता हूँ तिरी हिमायत में
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