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ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
न फ़ना मिरी न बक़ा मिरी मुझे ऐ 'शकील' न ढूँढिए
मैं किसी का हुस्न-ए-ख़याल हूँ मिरा कुछ वजूद ओ अदम नहीं
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
वहशत है इश्क़-ए-पर्दा-नशीं में दम-ए-बुका
मुँह ढाँकते हैं पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से हम
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
होवे इक क़तरा जो ज़हराब-ए-मोहब्बत का नसीब
ख़िज़्र फिर तो चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा क्या चीज़ है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
तुम यूँ ही समझना कि फ़ना मेरे लिए है
पर ग़ैब से सामान-ए-बक़ा मेरे लिए है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
वही चश्मा-ए-बक़ा था जिसे सब सराब समझे
वही ख़्वाब मो'तबर थे जो ख़याल तक न पहुँचे