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ग़ज़ल
शिकवा नहीं है अर्ज़ है मुमकिन अगर हो आप से
दीजे मुझ को ग़म ज़रूर दिल जो मिरा उठा सके
हकीम नासिर
ग़ज़ल
मुझ तलक क़ातिल तो क़ातिल मौत भी आती नहीं
किस को दीजे जान जब ख़्वाहान-ए-जाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
सरकशी ही है जो दिखलाती है इस मज्लिस में दाग़
हो सके तो शम्अ साँ दीजे रग-ए-गर्दन जला
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मुझ तलक क़ातिल तो क़ातिल मौत भी आती नहीं
किस को दीजे जान जब ख़्वाहान-ए-जाँ कोई न हो