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ग़ज़ल
ये इश्क़ होता है बिन सिखाए कि उस का कोई निसाब कैसा
हर इक है इस राह का मुसाफ़िर फ़क़ीर कैसा नवाब कैसा
अक़्सा फ़ैज़
ग़ज़ल
अक़्सा फ़ैज़
ग़ज़ल
हैं जितने भी रूप ज़िंदगी के किसी पे न ए'तिबार आया
वहाँ से दामन बचा के गुज़रे जहाँ पे कोई फ़रार आया
अक़्सा फ़ैज़
ग़ज़ल
ऐ मस्जिद-ए-अक़्सा तू जले और मैं देखूँ
क्या अज़्म-ए-तहफ़्फ़ुज़ भी निगहबाँ में नहीं है
सुलतान रशक
ग़ज़ल
वुफ़ूक़-ए-शौक़ को है तंग अक़्सा-ए-दो-आलम भी
फ़ज़ा-ए-ला-मकाँ परवाज़ के क़ाबिल समझते हैं
हफ़ीज़ फ़ातिमा बरेलवी
ग़ज़ल
'नरेश' अक़सा-ए-आलम जगमगा उट्ठे निगाहों में
तसव्वुर में मिरे जिस दम मिरा वो रश्क-ए-हूर आया