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ग़ज़ल
तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब
अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
ताक़-ए-अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुत-ख़ाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक
लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
है अब्र तो क्या चाहे फ़लक को भी जला दे
बिजली में कहाँ शोला-फ़िशानी मिरे दिल की