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ग़ज़ल
ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
मुद्दई बस्ता-ज़बाँ क्यूँ न हो सुन कर मिरे शेर
क्या चले सेहर की जब साहिब-ए-एजाज़ आया