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ग़ज़ल
शर्म-ए-जफ़ा से छुपते हो तुम दाद-ख़्वाह से
उज़्र-ए-गुनह तुम्हारा है बद-तर गुनाह से
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
मुसल्लम देख कर याक़ूब मुर्दे से हुए बद-तर
जो यूसुफ़ का दरीदा पैरहन होता तो क्या होता
अफ़सर इलाहाबादी
ग़ज़ल
रश्क-ए-जन्नत बन गया था आप के आने से घर
हो गया दोज़ख़ से बद-तर फिर चले जाने के बाद
शौक़ देहलवी मक्की
ग़ज़ल
यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो