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ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ
लफ़्ज़ को लड़वा दिया है बेशतर मअ'नी के साथ
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
पेशवाई को ग़म-ए-जानाँ की चश्म-ए-दिल से 'ज़ौक़'
जब बढ़े नाले तो उस से बेशतर आँसू बढ़े
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
नज़र आता है उन में बेशतर इक नर्म-ओ-नाज़ुक दिल
मसाइब के लिए सीने को जो फ़ौलाद करते हैं
सरस्वती सरन कैफ़
ग़ज़ल
बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
आज-कल सोने की चिड़िया है हमारे हाथ में