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ग़ज़ल
कितनी ही बे-ज़रर सही तेरी ख़राबियाँ
'बासिर' ख़राबियाँ तो हैं फिर भी ख़राबियाँ
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
ज़रा आगे चलोगे तो इज़ाफ़ा इल्म में होगा
मोहब्बत पहले पहले बे-ज़रर महसूस होती है
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत
कि मेरे हक़ में तिरी बे-ज़रर दुआ है बहुत
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
मैं वो समझा हूँ बयाँ तुम से जो होगा न कभी
बे-ज़रर हूँ मिरे इस कश्फ़ से घबराओ नहीं