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ग़ज़ल
एक तशन्नुज इक हिचकी फिर इक नीली ज़हरीली क़य
क्या कुछ लिख देने जैसा हैजान उभरता आता है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश
दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है