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ग़ज़ल
हिजरतों का ख़ौफ़ था या पुर-कशिश कोहना मक़ाम
क्या था जिस को हम ने ख़ुद दीवार-ए-जादा कर लिया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बहम बालीदन-ए-संग-ओ-गुल-ए-सहरा ये चाहे है
कि तार-ए-जादा भी कोहसार को ज़ुन्नार-ए-मीना हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
यक क़दम वहशत से दर्स-ए-दफ़्तर-ए-इम्काँ खुला
जादा अजज़ा-ए-दो-आलम दश्त का शीराज़ा था
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सभी जादा मातम-ए-सख़्त है कहो कैसी गर्दिश-ए-बख़्त है
न वो ताज है न वो तख़्त है न वह शाह है न दयार है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
न किसी को फ़िक्र-ए-मंज़िल न कहीं सुराग़-ए-जादा
ये अजीब कारवाँ है जो रवाँ है बे-इरादा