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ग़ज़ल
'जौहर' और हाजिब ओ दरबाँ की ख़ुशामद क्या ख़ूब
अर्श ओ कुर्सी पे गुज़र है तिरे दरबारी का
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
सोहबत यार है ऐ दिल तुझे घर बैठे नसीब
फिर तिरा काम है क्या हाजिब-ए-दरबान के पास
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
मंज़ूर नहीं जब उन्हें ख़ुद जल्वा दिखाना
क्यों कीजिए फिर हाजिब ओ दरबाँ की शिकायत
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
हबीब मूसवी
ग़ज़ल
मिसाल-ए-गंज-ए-क़ारूँ अहल-ए-हाजत से नहीं छुपता
जो होता है सख़ी ख़ुद ढूँड कर साइल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
बार तकलीफों का मुझ पर बार-ए-एहसाँ से है सहल
शुक्र की जा है अगर हाजत-रवा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
नई तहज़ीब तकल्लुफ़ के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरा रौशन हो तो क्या हाजत-ए-गुलगूना फ़रोश
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या
जहान-ए-रिज़्क़ में तौक़ीर-ए-अहल-ए-हाजत क्या