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ग़ज़ल
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात
ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मुझ को ख़राब कर गईं नीम-निगाहियाँ तिरी
मुझ से हयात ओ मौत भी आँखें चुरा के रह गईं